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साथी-संगम

Wednesday, June 6, 2012

उच्चारण पर आधारित ‘वज़्न’ के प्रसंग पर


सम्मानित पाठकगण,
                       निम्नांकित ग़ज़ल पर कुछ मित्रों, अनुजों एवं अग्रजों (सर्वश्री Dhruvendra Bhadauria, Nitesh Bisht, Harish Darvesh, Kumar Manoj, Megh Shyam Pandit, आदि ) ने प्रेरित किया कि मैं उपर्युक्त  ‘वज़्न’  प्रसंग पर अपनी राय दूँ। अतः यह पोस्ट एक लघु आलेख की प्राथमिक रूपरेखा के रूप में प्रस्तुत कर रहा हूँ...समय मिला तो इसे और भी विस्तार देने का प्रयास करूँगा...कुछ अन्य तथ्यों-तर्कों-प्रमाणों के साथ...संशोधित/परिवर्द्धित रूप में...!

साभिवादन,
जितेन्द्र ‘जौहर’
_____________


शाम-सवेरे सोच रहा है मन मेरा।
जाने कब करवट लेगा जीवन मेरा।


वह कोमल स्पर्श तुम्हारा कैसा था,
सिहर उठा करता है अब भी तन मेरा।


सच बतलाऊँ धूप पराई लगती है,
बदल गया है जिस दिन से आँगन मेरा।


तेरी यादों की चौखट पर अब तो बस, 
मै रहता हूँ और अकेलापन मेरा।


मै रेतीली राहों का अनुयायी हूँ,
साथ निभायेगा कब तक सावन मेरा?
                               -Harish Darvesh
...

उपर्युक्त ग़ज़ल पर-

Jitendra Jauhar का कहना था:
इस प्यारी-सी ग़ज़ल के लिए बधाई...! वह शे’र जो कि हासिले-ग़ज़ल है-
मै रेतीली राहों का अनुयायी हूँ,
साथ निभायेगा कब तक सावन मेरा!

यह शे’र दर्द की अनुभूति का धारक/ वाहक बनकर आया है-
तेरी यादों की चौखट पर अब तो बस, 
मै रहता हूँ और अकेलापन मेरा।

निम्नांकित शे’र काफी अच्छा है...लेकिन इसमें थोड़ा-सा तकनीकी दोष है, आप-जैसे दानिशमंद शाइर के लिए इशारा ही बहुत है-
वह कोमल स्पर्श तुम्हारा कैसा था,
सिहर उठा करता है अब भी तन मेरा ।


 Harish Darvesh जी का कहना था :
‘...प्रवाह को बनाये रखने वाले शब्दों को उनके उच्चारण के अनुसार वज़्न लेने कोई हर्ज़ नही है।’

 Dhruvendra Bhadauria जी का कहना था:
‘...समय के साथ संविधान बदलता है, छंद विधान भी बदलता है। संस्कृत के छंद नियमों में बदलाव की ज़रूरत है, भार गणना अब उच्चारण के अनुसार ही करनी होगी...।’

__________


~ समालोचना ~

Harish Darvesh जी का यह कथन पूर्णतः स्पष्‍ट नहीं है- ‘प्रवाह को बनाये रखने वाले शब्दों को उनके उच्चारण के अनुसार वज़्न लेने में कोई हर्ज़ नही है।’

अतः हम इस कथन को समुचित विमर्श-योग्य बनाने के लिए, इसे भलीभाँति समझने के लिए...सही दिशा में एकनिष्‍ठ एवं सार्थक संवाद के लिए...सर्वप्रथम इसके दो सरलीकृत खण्ड कर लेते हैं। यूँ कि-

1. प्रवाह को बनाये रखने वाले शब्द
2. (किसी काव्य रचना में) ‘शब्दों को उच्चारण के अनुसार वज़्न में बाँधना’ या प्रयोग करना। 



उपर्युक्त Point  नं. 1 के संदर्भ में: 

एक प्रश्‍न-
‘क्या किसी कविता-विशेष में ‘प्रवाह’ को बनाये रखने वाले कुछेक शब्द ही होते हैं... अथवा... उस कविता में प्रयुक्त सभी शब्द ‘लय-प्रवाह’ में योगदान देते हैं?

स्पष्‍ट उत्तर-
किसी भी छंदोबद्ध रचना में हर शब्द ‘लय-प्रवाह’ में अपना विशिष्‍ट योगदान देता है...(इतस्ततः आख़िरी रुक्न की लघु-मात्रिक इज़ाफ़त एवं अलिफ़ वस्ल, आदि की स्थितियों को अपवाद-रूप में छोडकर), हालांकि अलिफ़ वस्ल में उत्तरवर्ती स्वर पूर्ववर्ती व्यंजन ध्वनि से संधि करके संयुक्त ध्वन्यात्मक भूमिका में आ जाता है। अतः  इसे अपवाद कहना उचित न होगा।

इस प्रकार निष्‍कर्ष यह कि-
‘प्रवाह को बनाये रखने वाले शब्द’ -जैसे वाक्यांश का प्रयोग छंदशास्त्र/अरूज़ की दृष्‍टि से अपना औचित्य सिद्ध नहीं कर पा रहा है; कारण कि किसी भी छंद अथवा बह्‌र में हर ‘शब्द’ ही नहीं, बल्कि हर ‘अक्षर/हर्फ़’ अपनी ध्वन्यात्मक भूमिका के साथ किसी लयखण्ड अथवा रुक्न-विशेष के साँचे में ढलकर...फ़िट होकर... उतरता है। जहाँ कहीं वह साँचे में फ़िट नहीं हो पाता है, वहीं-वहीं वह छंद-दोष का शिकार हो जाता है...बह्‍र से खारिज हो जाता है। यह बिन्दु अब यहीं समाप्‍त...!



अब बात करता हूँ- Point नं. 2 पर :
यानी...‘शब्दों को उच्चारण के अनुसार वज़्न में बाँधना’!  Harish Darvesh जी का यह कथन सर्वथा उचित एवं स्वीकार्य है, ले...कि...न यहाँ हमें सही उच्चारण और ग़लत उच्चारण के बीच का अन्तर भी ध्यान रखना होगा। दरअस्ल हम लोग-

‘स्नान’  = इस्नान
‘स्कूल’  = इस्कूल 
‘स्कूटर’ = इस्कूटर 
‘स्थिति’ = इस्थिति
‘स्पात’  =  इस्पात
‘स्पर्श’  =   इस्पर्श

-बोलने के इतने अभ्यस्त हो गये हैं कि ग़लत उच्चारण हमें सही जान पड़ता है। यदि हम उपर्युक्त अशुद्ध भाषिक परम्परा का अनुमोदन करते हुए...मान्यता देते हुए...  ग़लत प्रचलित वज़्न पर बाँधने लगेंगे, तो फिर आम बोलचाल में प्रचलित अशुद्ध उच्चारण के अनुसार-

ग़लत     = गल्त 
पलटना  = पल्टना
वज़्न      = वज़न
जानते हैं = जान्ते हैं
मानते हैं = मान्ते हैं
सीखते हैं = सीख्ते हैं


-आदि अगणित शब्दों को भी उपर्युक्त ग़लत वज़्न में बाँधना पड़ेगा, जिसकी अनुमति छंदशास्त्र कदापि नहीं दे सकता। सृजन में स्वविवेक से वज़्न बाँधने वाली ‘छूट’ का अनुमोदन इसलिए भी नहीं किया जा सकता क्योंकि उससे न केवल छंद के क्षेत्र में, बल्कि भाषागत विकृतियाँ भी बढ़ जायेंगी। लेखक सिर्फ़ साहित्य-सेवक नहीं होता, वह भाषा-सेवक भी होता है। भारतेन्दु हरिश्‍चन्द, डॉ. श्यामसुन्दर दास, डॉ. पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, आदि सिर्फ़ साहित्यकार ही नहीं थे, वे सच्चे भाषा-सेवक भी थे। अब हम अपना लक्ष्य... स्वयं तय कर सकते हैं कि हम अपने लिए...साहित्य के लिए...भाषा के लिए क्या करने जा रहे हैं!

अब एक नज़र निम्नांकित शब्दों पर, जिनकी अनेक वर्तनियाँ प्रचलित हैं...और सभी मान्य हैं। हमें अपने छंद-दोषों को ढकने के लिए इनका अथवा अन्य अनेक अपवादों का सुविधाजनक व्याख्यापूर्ण उपयोग (वस्तुतः ‘दुरुपयोग’) नहीं करना चाहिए-

यत्‍न = यतन = जतन
रत्‍न = रतन  
दर्शन = दरस
स्पर्श = परस

उपर्युक्त के अतिरिक्त, कुछ शब्द-रूप हिन्दी-उर्दू में अनेक कवियों ने (अज्ञानवश अथवा समझौता करते हुए) अपनी सुविधानुसार वज़्न में बाँधे हैं-

शह्‌र = शहर
सिफ़्र = सिफ़र
ठहर = ठैर
उम्र = उमर

अब एक नज़र कुछ काव्य-उदाहरणों पर...! सुपरिचित युवा कवि मनोज अबोध के इस मुक्तक में ‘स्मरण’ शब्द का प्रयोग वर्तनी के समझौते के साथ किया गया है। उच्चारण पर आधारित यह प्रयोग भाषा के अपभ्रंश-रूप से जुड़ा है, जिसे खड़ी बोली के सृजन-कर्म में उचित नहीं माना जाता है। यहाँ स्पष्‍ट कर दूँ कि उनका यह प्यारा-सा एवं भावपूर्ण मुक्तक सिर्फ़ उदाहरण देने के शुद्ध-सात्विक मनोभाव से...शिवोद्‍देश्य से... प्रस्तुत कर रहा हूँ, न कि किसी दुर्भावना से-

पीर का सम्‍वरण प्रेम है।
नींद का अपहरण प्रेम है।
याद की झील में डूबकर,
अनवरत स्‍मरण प्रेम है।
ऽ । ऽ- ऽ । ऽ- ऽ । ऽ

ऐसा ही एक प्रयोग सुपरिचित कवि एवं संपादक अशोक ‘अंजुम’ की भी एक ग़ज़ल के मत्ले (?) में दिखा था-


वे अच्छे-अच्छों के भी दुम उगा के छोड़ेंगे।
सारे स्टाफ़ को चमचा बना के छोड़ेंगे। 

अब हिन्दी के प्रतिष्‍ठित कवि चन्द्रसेन विराट के एक मुक्तक की चौथी पंक्ति देखें, जिसमें ‘स्नान’ को ‘ऽ ।’ के सही मात्रात्मक भार पर बाँधा गया है-

वेदना  के  विधान  जैसा है।
विष के घूँटों के पान जैसा है।
गीत लिखना हो या ग़ज़ल कहना,
अग्नि सरिता में स्नान-जैसा है।
ऽ  ।   ऽ  ऽ- ।    ऽ । ऽ- ऽ  ऽ


मेरी विनम्र राय में, जब उस ग़लत उच्चारण के वज़्न पर बँधे शब्द-विशेष का सही और सुन्दर विकल्प उपलब्ध हो, तब ग़लत वज़्न पर बँधे शब्द के सही विकल्प को चुन लेने में कोई बुराई नहीं है। ग़लत वज़्न पर बँधे शब्द किसी भी छंदोबद्ध रचना पर ‘ग्रहण’ लगाते हैं। Jokingly... मैं छंदभंग होने की ऐसी स्थितियों को प्रायः ‘सूर्य-ग्रह’ और ‘चन्द्र-ग्रहण’ की तरह ‘छंद-ग्रहण’ कहता हूँ।

यहाँ हरीश दरवेश जी के संदर्भित शे’र पर भी यह बात लागू होती है। वे (बल्कि...अरूज़ी सूझबूझ रखने वाले सभी कविगण) इस बात से निश्‍चित रूप से सहमत होंगे कि जब विकल्प न हो, तब समझौता कर लेने की मजबूरी को समझा जा सकता है, लेकिन श्रेष्‍ठ विकल्प की उपलब्धता की स्थिति में समझौता मेरी समझ से परे है। हरीश जी के संदर्भित शे’र के लिए कई विकल्प हो सकते हैं, जो कि आगे दिये गये हैं।


_____

उपर्युक्त सभी (परस्पर विपरीत...यानी- ‘शुद्ध-अशुद्ध’) उदाहरणों के आलोक में Harish Darvesh जी के निम्नांकित शे’र के बेहतर समाधानयुक्त विकल्प नीचे प्रस्तुत हैं। उनका अपना शे’र है-

‘वह कोमल स्पर्श तुम्हारा कैसा था,
सिहर उठा करता है अब भी तन मेरा।’

समाधानपूर्ण विकल्प यूँ हो सकते हैं...यह मेरी सीमित साहित्यिक समझ पर आधारित एक आदमक़द कोशिश है, जो कि ‘अनन्तिम’ है...साथ ही किसी के लिए ‘बाध्यकारी नहीं’ है-


-(एक)-

कैसा था संस्पर्श तुम्हारा वह कोमल,
पुलकित हो उठता है अब भी तन मेरा।

-(दो)-

वह कोमल संस्पर्श तुम्हारा कैसा था,
पुलकित हो उठता है अब भी तन मेरा।

नोट:-
उपर्युक्त समाधान नं. २ में अभी भी एक छोटा-सा दोष है, जो कि बहुतेरे कवियों के यहाँ मिल जाता है...यत्र-तत्र मैंने भी अपने निजी लेखन में विकल्प की (‘दोष-रहित उपलब्धता’ के बावजूद) इसका निराकरण नहीं किया क्योंकि उससे रचना की रवानी न्यूनाधिक बाधित होती हुई-सी जान पड़ रही थी।


चलते-चलते :
श्री ध्रुवेन्द्र भदौरिया जी के इस कथन-  ‘...भार गणना अब उच्चारण के अनुसार ही करनी होगी...।’ -से मैं अपनी विनम्र असहमति प्रकट करना चाहता हूँ। कारण कि उनके इस विचार के अनुपालन से छंद के क्षेत्र में एक प्रकार की आराजक स्थिति उत्पन्न हो जायेगी। क्योंकि- ‘कोस-कोस पर पानी बदले, तीन कोस पर बानी...’देश के विभिन्न हिस्सों में एक ही भाषा-भाषी लोग भिन्न-भिन्न उच्चारण भी करते हैं। तब पंजाब का छंदशास्त्र कुछ और हो जायेगा...बंगाल का कुछ और...केरल का कुछ और...उ.प्र का कुछ और! वैसे भी आज मंचों पर हर गवैय्या कवि अपनी-अपनी सुविधा से टेढ़ी-मेढ़ी काव्य रचना को अपनी सुविधानुसार खींच-घसीटकर गा ही ले जा रहा है...ताली बजाने वाले ताली बजा रहे हैं...दोनों ही पक्ष ख़ुश हैं...! कवि तालियों से ख़ुश... और श्रोतागण गलेबाज़ी से ख़ुश...! इस उभयपक्षीय ‘ख़ुश’ होने के अराजक माहौल में श्रेष्‍ठ सृजन मंच पर नाम-मात्र का रह गया है। यह स्थिति साहित्य की दृष्‍टि से सर्वथा असात्म्य है। वैसे यह सर्वविदित है कि उर्दू-फ़ारसी बह्‌रें उच्चारण (अर्थात्‌ ‘ध्वनि’) पर ही आधारित हैं...लेकिन यहाँ मित्रों का अभिप्राय शुद्ध-अशुद्ध (जो भी प्रचलित है) उस उच्चारण से है। अतः मेरी असहमति का अपना एक साहित्यिक आधार है। 

अब सर्वाधिकार आप सभी विद्वानों को है कि आप क्या स्वीकारते हैं, और क्या नहीं...! हाँ, हमें यह सदैव याद रखना चाहिए कि हमारे ‘काव्य-दोष’ किसी ‘सुविधाजनक व्याख्या’ की ‘झीनी चादर’ से ढके नहीं जा सकते हैं।



------------
अनुरोध:
कृपया अपनी राय दें...!  साथ ही यह भी लिखें कि  क्या आप इस आलेख को परिवर्द्धित रूप में भी पढ़ना चाहेंगे...?


नोट:- 
‘कमेण्ट मॉडरेशन’ के चलते आपकी टिप्पणी के प्रकाशित होने में समय लगता है,  अतः चिंतित न हों।

14 comments:

  1. आदरणीय जितेन्द्र जौहर जी,
    मैं आपका कोटि कोटि आभार व्यक्त करता हूँ कि आपने समय निकाल कर हमारे मार्गदर्शन हेतु इस विषय पर अपने तर्कसंगत विचारों से हमे लाभान्वित किया..
    मैं आपके विचारों से सहमत हूँ..
    एक और विनम्र निवेदन आपसे करना चाहूँगा कि इस पोस्ट को ‘PDK’ पर भी लगा दिया जाए तो...........

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    1. प्रिय भाई Nitesh जी,

      आपकी प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभारी हूँ...!

      वस्तुतः जिन प्रश्‍नकर्त्ताओं के उत्तर देने के लिए यह पोस्ट तैयार की गयी है, उनमें आप एक प्रमुख व्यक्ति हैं। मैंने आपके निर्देशानुसार PDK पर इस आलेख की लिंक Post कर दी है...आपने भी कर ही दी थी।

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  2. adarniy jitendr ji bhashha bhavon ko vyakt karne ka madhyam hotee hai.yadi vah aisa karne me samarth hai to vyakarniy charcha kee koi visheshh awasyakta naheen.koi apne bhavon ko kisi ek vyakti, do ya kuchh seemit vyaktiyon par vyakt kar sakta hai kintu jab bhavnaon ko aseemit logon tak preshit karna ho to bhashha ko anushashit hona hee hota hai jise vyakaran kahte hain.
    kavita karna daiveey gun hai,ye sach hai kintu is daiveey vardan se adhikadhik manuj labhanvit ho saken ,is hetu prayas karna kavi ka dharm hona chahiye.sahityik sameekshak is disha me mahtee bhoomika nibha sakte hain.aaap is disha me jo kar rahe hain vah vandaneey hai.main itna hee kah sakta hoon bas.

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    1. प्रिय भाई राजीव जी,

      १. आपने ब्लॉग पर दस्तक दी...अपनी राय भी प्रस्तुत की, इसके लिए हार्दिक आभार!

      २. यह सच है कि भाषा भावों-विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम है... किन्तु मैं आपके इस कथन से सहमत नहीं हो पा रहा हूँ कि-
      "...यदि भाषा भावों को व्यक्त करने में समर्थ है, तो ‘व्याकरण-चर्चा’ की विशेष आवश्यकता नहीं है..."

      मैं कहना चाहूँगा कि-
      किसी अबोध शिशु के ‘मम-मम’ बोलते ही माँ समझ जाती है कि मेरे बेटे/बेटी को ‘पानी’ चाहिए। जब हम Grown up लोगों को प्यास लगती है, तब हम ‘मम-मम’ का प्रयोग नहीं करते। इसी तरह माँ अपने बच्चे के रोने की आवाज़ सुनते ही उसे ‘भूखा’ मानकर दूध पिलाने लगती है। उस शिशु ने अपनी सीमित ‘भाषागत क्षमता/सामर्थ्य’ से अपनी बात को संप्रेषित करने में...व्यक्त करने में... भरपूर सफलता पायी है। इसका मतलब यह नहीं कि शब्दकोश में ‘रोने की ध्वनि’ का अर्थ ‘भूख’ दर्ज कर दिया जाय...!!!

      अब एक स्थूल उदाहरण देना चाहूँगा-
      यह कि यदि किसी व्यक्ति का आधा पैर कट गया हो, वह किसी-न-किसी प्रकार चलने-फिरने का काम तो कर ही लेगा। उसके काम चला लेने-मात्र को आधार मानकर उसे ‘सकलांग’ नहीं कहा जा सकेगा...वह आख़िर कहलाएगा- ‘Physically disabled / Physically challenged’ अथवा ‘विकलांग’ ही...आम बोलचाल में तो लोग उसे ‘लँगड़ा’ (?) भी कह देंगे!

      समीक्षा/समालोचना के अन्तर्गत ‘भाषा’ का पहलू भी आता है। कवियों/लेखकों के भाषागत पहलू पर तो अगणित शोधकार्य हुए हैं।

      दरअस्ल... राजीव भाई, प्रायः होता यह है कि कविगण/लेखकगण अपने भाव, भाषा, शिल्प-सम्बन्धी दोषों को ढकने के लिए भाँति-भाँति के तर्क/कुतर्क और सुविधाजनक व्याख्याएँ लेकर सामने आ जाते हैं, जबकि दोष सदैव ‘दोष’ ही रहता है।

      साहित्यकार के लिए भाषा अनिवार्य Tools की तरह है, यदि उसके Tools ही भोंथरे हों, तो वह किस तरह की कारीगरी कर सकेगा...यह अनुमान लगाना बहुत कठिन नहीं है!

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  3. adarniy jitendr ji bhashha bhavon ko vyakt karne ka madhyam hotee hai.yadi vah aisa karne me samarth hai to vyakarniy charcha kee koi visheshh awasyakta naheen.koi apne bhavon ko kisi ek vyakti, do ya kuchh seemit vyaktiyon par vyakt kar sakta hai kintu jab bhavnaon ko aseemit logon tak preshit karna ho to bhashha ko anushashit hona hee hota hai jise vyakaran kahte hain.
    kavita karna daiveey gun hai,ye sach hai kintu is daiveey vardan se adhikadhik manuj labhanvit ho saken ,is hetu prayas karna kavi ka dharm hona chahiye.sahityik sameekshak is disha me mahtee bhoomika nibha sakte hain.aaap is disha me jo kar rahe hain vah vandaneey hai.main itna hee kah sakta hoon bas.

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  6. दादा एक महत्वपूर्ण व उपयोगी जानकारी देने के लिये धन्यवाद ..............

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  7. aadarneey jitendra sir ji aapne jo baat kahi hai yathuchit hai , kintu vigy jano kaa manana aisa nahi wo kahin to wajn main trutiyaan nikaalte hain to kahin bahr main, jabki shabdon ke bhar se unka lena dena hi nahi, isiliye maine bahut pahle ye baat kahi thi ki ghazal maatrik chhand to hai kintu geyta ke aadhar par hi ham wajn aur bahar dekhen to usme char chand jade jaa sakte hain par niraasha hi haanth lagi lohon ne mana hi nahi ki ye geyta ki drishti se gair maatrik chhand hai .................jabki kabhi kabhi hota yun hai ki aap kisi harf kaa uchcharan kaise kar rahe hain, geyta aapke harf ke uchcharan pe depend karti hai naa ki harfon me liye wajn par, hindi aur urdu main bahut se aise harf hain jinka uchcharan bahut se log alag alg tareeke se karte hain ...........
    aapne hamara maargdarshan kiya hai iske liye main aapka koti koti aabhari hun aur shahtron pranaam preshit karta hun,

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  8. भाषा परिमार्जन को ले कर कही गई बातें सर्वथा उचित हैं
    हमें संभवत: अशुद्धियों से दूर रहना ही चाहिये
    जब जागो तभी सवेरा


    आ. चंद्रसेन विराट जी हिन्दी छंदों में हर्फ़ न गिराने की भरपूर वकालत करते हैं, इसलिये उनके उपर्वणित मुक्तक को अपनी ख़ुद की रियाज़ समझते हुये अपनी ज़ुबान के अनुसार प्रस्तुत करता हूँ:-

    रगण रगण यगण गुरु
    S|S S|S |SS S

    फ़ाएलातुन मुफ़ाएलुन फ़ैलुन
    2122 1212 22

    वेदना के विधान जैसा है
    "ये गरल घूँट" पान जैसा है
    गीत लिखना "कि हो" ग़ज़ल कहना
    अग्नि-सरिता में स्नान जैसा है

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  9. श्रद्धेय जौहर साहब इतनी उपयोगी जानकारी उपलब्ध करवाने के लिए हार्दिक आभार |इसी प्रकार मार्गदर्शन करते रहिएगा |
    आपका
    अनंत आलोक

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  10. निसंदेह यह पोस्ट उपयोगी एवं महत्वपूर्ण है.

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  11. Jauhar ji,
    aapka vishleshan to bahut achchha hai. Misre ko bhi aapne sudhaar diya hai lekin 'sihar' ke sthaan par 'pulkit' bhav bhoomi par wah mazaa nahin de pa raha hai. Koi aur tarika sochiye jismein siharnaa bachaa rah jaye.






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