रज्जो...यानी समाज की अंतिम पंक्ति में खड़ी एक अनपढ़ और ग़रीब ग्रामीण महिला जिसका पति रोज़ी-रोटी की तलाश में गया था, दिल्ली। जी हाँ, दिल्ली... कंक्रीट के उस जंगल में पता नहीं वह कहाँ खो गया, न कोई चिट्ठी... न फोन... न घर-ख़्रर्च के लिए कोई मनी-ऑर्डर।
एक तो परिवार पर पहले से ही ग़रीबी और कर्ज़ की मार, उस पर घर के बुज़ुर्गों की बीमारी का इलाज...और न जाने कितनी ही रोज़मर्रा की ज़रूरतें... इसी सोच में डूबी परेशान ‘रज्जो’ आख़िर करे भी तो क्या...?
बहरहाल देश की आज़ादी के 63 वर्ष बीत जाने के बाद भी यदि ‘रज्जो’ के हालात जस-के-तस हैं, तो यह दृश्य अपने आप में हमारी विकास-यात्रा के तमाम दावों पर एक प्रश्नचिह्न लगाता है। तो लीजिए प्रस्तुत है- ‘रज्जो की चिट्ठी’...
दिल के सब अरमान, हाय! फाँसी पर झूल गये।
पिया! शहर क्या गये, गाँव का रस्ता भूल गये!
अरसा बीत गया घर का न, हाल लिया कोई।
चिट्ठी लिखी न अब तक, टेलीफोन किया कोई।
भूले से भी कभी डाकिया, आया न द्वारे।
फोन के लिए मिसराइन से, पूछ-पूछ हारे!
होली पे गुझिया को अबकी, तरस गये बच्चे।
बिना तेल चूल्हे पे पापड़, भून लिये कच्चे!
फटा जाँघिया टाँक-टाँक, कलुआ को पहनाया।
कई दिनों से घर में सब्जी-साग नहीं आया!
कुल्फी वाला जब अपने, टोले में आता है।
सबको खाते देख छुटन्कू, लार गिराता है!
दलिया के लालच में कल, ‘इस्कूल’ गया छुटुआ।
उमर नहीं थी पूरी सो, ‘इडबीसन’ नहीं हुआ !
सही कहत बूढ़े-बुजुर्ग कि जहाँ जाए भूखा।
किस्मत का सब खेल राम जी! वहीं पड़त सूखा।
एक रोज बोलीं मुझसे जोगिन्दर की माईं।
‘ए रज्जो ! तोहरे पउवाँ में, बिछिया तक नाहीं!’
का बतलाऊँ..? मरे लाज के, बोल नहीं निकरा।
हमरे घर का हाल, गाँव अब जानत है सिगरा!
सुबह-शाम बापू की रह-रह, साँस उखड़ जाती।
फूटी कौड़ी नहीं दवाई जो मैं ले आती!
का लिखवाऊँ हाल, हाय रे... बूढ़ी मइया का ?
‘कम्पोडर’ का पर्चा, दो सौ तीस रुपैय्या का!
रोज-रोज की गीता आखिर, किस-किससे गाएँ?
कर्ज माँगने किस-किस के, दरवाजे पे जाएँ?
ठकुराइन पहले ही रोज, तगादा करती है।
कल बोली, ‘रज्जो.. तू झूठा वादा करती है!’
तू-तड़ाक-तौहीन झेलकर, बहुत बुरा लागा।
कर्ज-कथा ठकुराइन घर-घर, सुना रही जा-जा।
इससे ‘जादा’ और ‘बेजती’ क्या करवाओगे ?
अम्मा पूछ रहीं हैं, "लल्ला...घर कब आओगे?"
बापू को सूती की एक लँगोटी ले आना।
और सभी के लिए पेटभर रोटी ले आना!
मुन्नू चच्चा से कहकर ये, चिट्ठी लिखवाई।
जल्दी से पहुँचइयो दिल्ली,....हे दुर्गा माई !
-जितेन्द्र ‘जौहर’
श्री शैलेश भारतवासी(संस्थापक/संपादक:‘हिन्द-युग्म’) ने इस कविता को ‘हियु’ पर प्रस्तुत करते हुए लिखा कि :
"...इस बार प्रतियोगिता में कुल 46 प्रविष्टियाँ सम्मिलित थीं। प्रथम चरण के 3 निर्णायकों द्वारा प्रदत्त अंकों के आधार पर कुल 18 कविताएँ द्वितीय चरण के लिए चयनित हुईं। द्वितीय चरण मे 2 निर्णायकों ने उन्हें आँका। दोनों चरणों के कुल प्राप्तांकों के औसत के आधार पर सभी 18 कविताओं का क्रम निर्धारित किया गया...जितेंद्र `जौहर’ की कविता (‘रज्जो की चिट्ठी’) सितंबर माह मे तीसरे स्थान पर रही है। ‘हिंद-युग्म’ के लिए यह उनकी पहली कविता है..."
‘रज्जो की चिट्ठी’ नीचे दी गयी Link पर भी उपलब्ध (विविध टिप्पणियों के साथ): http://kavita.hindyugm.com/2010/10/blog-post_13.html
अब एक नज़र ‘रज्जो की चिट्ठी’ पर गुणीजनों द्वारा दर्ज की गयीं टिप्प्णियों पर : (संदर्भ:‘हियु’)