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साथी-संगम

Saturday, September 22, 2012

मुक्तक : कुछ विचार, कुछ प्रकार

प्रिय मित्रो,
निम्नांकित आलेख मैंने प्रसिद्ध त्रैमा. ‘शब्द प्रवाह’ (उज्जैन) के ‘मुक्तक विशेषांक’ (अंक-15, अप्रैल-जून ’12) के लिए...तमाम व्यस्तताओं के बीच... बहुत जल्दबाज़ी में लिखा था...देश के विभिन्न हिस्सों में जहाँ-जहाँ यह पत्रिका गयी... इसे पाठकों का भरपूर प्यार मिला। इस आलेख का परिवर्द्धित संस्करण ‘नई ग़ज़ल’ (शिवपुरी, म.प्र)  के अंक जुलाई-सितम्बर ’12 में प्रकाशित हुआ है। अभी हाल ही में यह आलेख प्रसिद्ध मासिक पत्रिका ‘वीणा’ (इन्दौर) के अंक-1025, मई-2013 में प्रमुखता से प्रकाशित हुआ है। कुछ अन्य पत्रिकाओं ने भी इसे ‘साभार’ प्रकाशित करने के संकेत दिये हैं। 
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आलेख:

मुक्तक : कुछ विचार, कुछ प्रकार
  -जितेन्द्र ‘जौहर’


दि कतिपय उत्कृष्‍ट एवं विशिष्‍ट उदाहरणों को अपवाद-रूप में परे हटा दिया जाय, तो मुक्तक-परिक्षेत्र में काफी असंतोषजनक स्थिति दिखायी पड़ती है। इसका सबसे बड़ा कारण शिल्पगत अध्ययन के प्रति उदासीनता है। हिन्दी काव्य के इस लघु परिक्षेत्र में संव्याप्‍त भाव-भाषा-शिल्प की अराजकता का ग्राफ इतना ऊँचा है, जिसे देखकर किसी भी विधा-मर्मज्ञ को आश्‍चर्य हो सकता है। कहीं किसी पत्रिका में ‘रुबाई’ शीर्षक के अन्तर्गत मुक्तक/क़त्‍आत्‌ प्रकाशित मिल जाते हैं, तो कहीं मुक्तक/क़त्‍आत्‌ की चारों पंक्तियाँ चार अलग-अलग छंदों/बह्‌रों से नज़रें मिलाती नज़र आ जाती हैं; इसे रचना का ‘भैंगापन’ कह देना, अनुचित नहीं जान पड़ता। इतना ही नहीं, कभी-कभी तो चार में से एक भी पंक्ति किसी छंद/बह्‌र की कसौटी पर खरी नहीं उतरती...न मात्रिक और न ही वार्णिक। भाव और भाषा के जो दोष होते हैं, सो अलग! इसके अतिरिक्त कुछ छपास-प्रेमी कविगण अपनी छोटी-बड़ी बह्‌रों पर आधारित ग़ज़लों में से किन्हीं मिलते-जुलते भावों पर टिके दो अश्‌आर (प्रायः एक मत्ला + एक शे’र) मिलाकर ‘मुक्तक’ के रूप में खपा देते हैं। यह विडम्बना ही है कि जिन महाशयों को स्वयं ही किसी विधा-विशेष का समुचित ज्ञान नहीं है, वे भी उल्टा-सीधा (जैसा भी है) थोड़ा-बहुत काम करके स्वयं को विधागत पुरोधा बनाकर पेश करते रहे हैं। उदाहरणार्थ, देश के लगभग हर क्षेत्र में ऐसे स्व-घोषित अथवा स्वजन-प्रक्षेपित ‘ग़ज़ल-सम्राट’ मौजूद हैं, जिनकी स्वयं की ग़ज़लें भाव-भाषा-शिल्प की चौखट पर घुटने टेक देती हैं। यही बात कमोवेश ‘मुरुक़-प्रदेश’ पर भी लागू है- मुरुक़...अर्थात्‌ ‘मुक्तक+ रुबाई+ क़ता’। सौभाग्यवश ‘सरस्वती सुमन’ जैसी प्रतिष्‍ठित पत्रिका के अतिथि संपादक के रूप में मुझे देश-देशान्तर के ४२५ से अधिक मुरुक़-लेखकों से सीधे संपर्क में आने का भरपूर अवसर मिला। उस दौरान कुछेक दर्जन ऐसे कविगण मिले, जिन्होंने अपनी मुक्तकाभिव्यक्तियों से मन मोह लिया। वहीं कुछ ऐसे कवियों से भी भेंट हुई, जो अपने मुक्तकों को ‘रुबाई’ कहते हैं। इन्हीं में से एक सज्जन ने तो अपने मुक्तक/क़त्‍आत्‌ का एक ऐसा संग्रह छपवा लिया, जिसमें आरम्भिक पृष्‍ठ पर शीर्षक के नीचे कोष्‍ठक में दर्ज है- ‘रुबाइयाँ’, जबकि उसमें शायद ही कोई ‘रुबाई’ शामिल हो! 

मुक्तक-परिक्षेत्र में व्याप्‍त उक्तवत शैल्पिक अराजकता के उदाहरण-वैपुल्य के बीच एक बानगी नीचे प्रस्तुत है, जिसके रचयिता का नाम प्रकाशित करना कोई आवश्यक नहीं है। यहाँ मेरा उद्‍देश्य नवोदितों एवं जिज्ञासुओं के सम्मुख उदाहरण-सम्मत विचार प्रस्तुत करना है-

तन के तानपुरे की सुन ले, ये मिट्‍टी की महिमा गाता है
ख़ुद अपनी पे आ इतना इतराता है, इठलाता है, मदमाता है
महाबली भीम की जब लेती है यहाँ चिता परीक्षा
एक लकड़ी भी वो अपनी छाती से हटा नहीं पाता है।

‘छंद/बह्‌र’ के धरातल पर लड़खड़ाता हुआ उपर्युक्त मुक्तक निःसंदेह एक बड़ी ‘सर्जरी’ की माँग करता है। यह मुक्तक स्पष्‍ट संकेत दे रहा है कि मुक्तककार के पास भाव और विचार का ‘अभाव’ नहीं है। उसके पास न तो शब्दों का अकाल है, और न ही समुचित उदाहरण अथवा दृष्‍टान्त चुन लेने की क्षमता की कमी। उसके पास कमी है, तो बस सम्यक्‌ ‘छंद-ज्ञान’ की, जिसके चलते उसके सुन्दर भाव, सारगर्भित विचार और सराहनीय शब्द-चयन आदि सब-के-सब धरे-के-धरे रह गये। छंद-ज्ञान के अभाव ने कवि के इस मुक्तक में अनुस्यूत ‘तन के तानपुरे’ का सुन्दर एवं अनुप्रास-युक्त रूपक तो सस्ते में गँवा ही दिया, साथ ही ‘मिट्‍टी’ और ‘भीम’ की सांकेतिकता पर भी ग्रहण लगा दिया है। इस मुक्तक की स्थिति कमोवेश वैसी ही है, जैसे कोई ‘श्रेष्‍ठ विचारों वाला व्यक्ति’ अस्त-व्यस्त दशा में किसी सार्वजनिक समारोह में उपस्थित हो गया हो आकर! इस सबके बावजूद इसमें गुँथे भावों-विचारों की उत्कृष्‍टता ने मुझे प्रेरित किया कि इसका कमोवेश ‘ऑपरेशन’ किया जाय। ऐसा ऑपरेशन, जिसमें थोड़ा-बहुत शिल्पगत समझौता स्वीकार करते हुए मुक्तककार (?) के मूल भाव-विचार में कोई विशेष अन्तर उत्पन्न न होने पाये। सो मैंने अपनी सीमित समझ के आधार पर एक लघु प्रयास किया, परिणाम नीचे प्रस्तुत है-

तन का तानपुरा हरपल मिट्‍टी की महिमा गाता है
फिर भी अपनी पर आकर मानव अक्सर इठलाता है
मृत्यु परीक्षा लेती है जब भीम-तुल्य बलशाली की
लकड़ी का इक टुकड़ा भी छाती से हटा न पाता है।

इसे एक सीमा तक ‘पुनर्लेखन’ की संज्ञा भी दी जा सकती है, यह अलग बात है कि अभी भी इस मुक्तक के स्तर में ‘श्रीवृद्धि’ का मार्ग अवरुद्ध नहीं है। श्रेष्‍ठता की गुंजाइश तो सदैव बनी ही रहती है। और फिर...एक बात यह भी कि कोई भी लौकिक सृजन, संशोधन अथवा अनुसृजन ब्रह्मा की लिपि नहीं है। मेरा उपर्युक्त प्रयास भी इसका कोई अपवाद नहीं है। बहरहाल उदाहरण एवं अनुभव इतने कि यदि लिखने बैठूँ, तो एक भारी-भरकम ग्रंथ तैयार हो जाय। फ़िलहाल यहाँ मुख्य प्रकरण (विषय) से जुड़कर बात को आगे बढ़ाना उचित होगा। इस क्रम में, सबसे पहले बात करता हूँ- ‘दोहा-मुक्तक’ पर। दोहा-मुक्तककारों में सम्प्रति सिर्फ़ दो प्रमुख कवियों के नाम और काम मेरे संज्ञान में आये हैं; एक डॉ. ब्रह्मजीत गौतम और दूसरे श्री कमलेश व्यास ‘कमल’। इन कवि-द्वय का एक-एक उदाहरण क्रमशः नीचे प्रस्तुत है-

जीवन क्या है अन्ततः सिर्फ़ सुखों की झील
अथवा है यह दुख-भुझी एक नुकीली कील
सुख औ’ दुख के बीच जो जलती आठों याम 
जीवन है वह वस्तुतः एक सुभग कंदील। 
                                                                                                                    (डॉ. ब्रह्मजीत गौतम)

कहना न होगा कि जब कोई कवि अपनी रचनाओं में मुहावरों का यथोचित प्रयोग करता है, तब उसका सृजन और भी अर्थ-दीप्‍त हो उठता है। निम्नांकित दोहा-मुक्तक में परम्परागत कथ्य के बावजूद मुहावरेदार भाषा-प्रयोग ने रचना को अलंकृत कर सपाटबयानी के धरातल से दूर पहुँचा दिया है। साथ ही, इस दोहा-मुक्तक में प्रयुक्त ‘भरोसा’ को प्रदान की गयी ‘बालू की भीत’ की उपमा ने मुक्तककार की भावाभिव्यक्ति का श्रृंगार कर दिया है-
हुआ भरोसा आजकल, ज्यों बालू की भीत।
नैतिकता अब हो गयी, भूला-बिसरा गीत।
इष्‍ट-मित्र किसको कहें, मतलब के हैं यार,
आज बदलते दौर में, पैसा है तो प्रीत। 
                                                                                                                (कमलेश व्यास ‘कमल’)

यदि आलोचनात्मक दृष्‍टि से देखा जाय, तो विधागत रूप से ‘दोहा’ स्वयं ही ‘मुक्तक काव्य’ के अन्तर्गत आता है, तथापि ‘दोहा’ छंद के अनुशासन में बँधी चतुष्‍पदी रचनाओं अर्थात्‌ ‘दोहा-मुक्तकों’ पर कोई प्रश्‍न-चिह्न लगाना उचित नहीं जान पड़ता है। माना कि वह चतुष्‍पदी रचना अपनी तृतीय पंक्ति में दोहा की निर्धारित तुकान्त-योजना को भंग कर देती है, तथापि उसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि वह समतुकान्तता की छूट लेकर भी दोहा छंद को भंग नहीं करती। इस बिन्दु के समर्थन में मेरा तर्क यह कि उस तृतीय पंक्ति में ‘विषम’ की प्रयुक्ति मुक्तक के लिए निर्धारित एक तुकान्त-योजना ‘सम-सम-विषम-सम’ के निर्वाह के लिए होती है, जो कि ‘दोहा’ छंद में रचित चतुष्‍पदियों को विधागत मानक पर खरा सिद्ध करती है। सच यह भी है कि दोहा-मुक्तककारों के सम्मुख चारों पंक्तियों को ‘सम-सम-सम-सम’ के विधान में प्रस्तुत करने का विकल्प भी खुला हुआ है। अभी तक किसी भी दोहा-मुक्तककार का ऐसा कोई मुक्तक मेरी दृष्‍टि से नहीं गुज़रा है। इस दिशा में भी काम किया जा सकता है। ‘सम-सम-सम-सम’ के तुक विधान से बचने का एक कारण शायद यह भी हो सकता है कि इस तुक-विधान में दोहा-मुक्तक रूपी ‘चतुष्पदियों’ में दो मिलते-जुलते भावों-विचारों वाले दोहों के संयुक्त होने की भ्रमपूर्ण स्थिति उत्पन्न हो सकती है, लेकिन मेरी विनम्र राय में जहाँ तक ‘सम-सम-सम-सम’ के विधान की बात है, तो कहना होगा कि जब यह तुकान्त-योजना मुक्तक, रुबाई, क़त्‍अः में स्वीकार्य है, तो दोहा-मुक्तकों में क्यों न स्वीकार की जाय? प्रसिद्ध छंद-पथी कवि श्री धनीराम ‘बादल’ (उज्जैन) का एक क़त्‍अः/मुक्तक देखें, जिसमें चारों मिसरे क़ाफ़िया-रदीफ़ से बँधे हैं-

बन्द यारों के लब रहे होंगे
कुछ तो इसके सबब रहे होंगे
डर दिलों में ग़ज़ब रहे होंगे
मर्द लफ़्ज़ों में सब रहे होंगे।

उपर्युक्त मुक्तककार का ही एक अन्य मुक्तक देखें, जिसमें तीसरे मिसरे को क़ाफ़िया-रदीफ़ के बंधन से मुक्त रखा गया गया है। इसमें कविवर ‘बादल’ का अन्दाज़े-बयाँ भी क़ाबिले-ग़ौर है:

ऐसा इन्कार कि इक़रार की हद को छू ले
ऐसा ठहराव कि रफ़्तार की हद को छू ले
बुत बने बैठे हैं, नज़रें ये मगर कहती हैं
ख़ामुशी ऐसी कि गुफ़्तार की हद को छू ले।

सर्व-विदित है कि हिन्दी में सर्वाधिक मुक्तक ‘सम-सम-विषम-सम’ के विधान में ही निबद्ध हैं। यहाँ पुनः स्पष्‍ट करना चाहूँगा कि ‘सम-सम-विषम-सम’ के विधान में रचे गये दोहा-मुक्तक पूर्णतः स्वीकार्य हैं। इसे ‘दोहा’ छंद मे किये गये ‘नये प्रयोग’ के रूप में स्वीकार किये जाने में किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। इतिहास साक्षी है कि काव्य-मर्मज्ञों ने समय-समय पर छंद के क्षेत्र में नये-नये प्रयोग किये हैं; एक सद्यस्क उदाहरण तो ‘जनक’ छंद का भी उल्लेख्य है, जिसकी वंशावली ‘दोहा’ छंद से जुड़ी है। उधर ‘कुण्डलिया’ में भी इसके प्रयोग से हम सभी परिचित हैं ही।

‘मुरुक़-प्रदेश’ में एक नया प्रयोग हाइकु-मुक्तक और ‘हाइकु-रुबाई’ के रूप में भी किया गया है, जिसकी बानगी इन पंक्तियों के लेखक (मै स्वयं) द्वारा संपादित त्रैमा. ‘सरस्वती सुमन’ (देहरादून) के ‘मुरुक़ विशेषांक’ में देखी जा सकती है। उस बहुचर्चित विशेषांक में प्रथम बार इतने प्रयोगवादी मुक्तक, रुबाइयाँ एवं क़त्‍आत एक-साथ प्रकाशित हुए हैं। वरिष्‍ठ साहित्यकार श्री रामेश्‍वर काम्बोज ‘हिमांशु’ एवं डॉ. बिन्दु जी महाराज (भारत), डॉ. हरदीप कौर ‘संधु’ तथा भावना कुँवर (ऑस्ट्रेलिया), रचना श्रीवास्तव (अमेरिका) आदि के अतिरिक्त सुप्रसिद्ध कवि एवं समीक्षक डॉ. रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’ (फ़िरोज़ाबाद) के भी ‘हाइकु-मुक्तक’ यत्र-तत्र प्रकाशित देखे गये हैं।

यहाँ एक विशेष प्रयोग की दृष्‍टि से वरिष्‍ठ कवि एवं संपादक श्री रामेश्‍वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की एक रचना देखें, जो 5-7-5  के वर्णक्रम में 17 आक्षरिक त्रिपदकि छंद अर्थात्‌ ‘हाइकु’ के साथ ही मुक्तक/क़त्‍आत्‌ की छांदसिक कसौटी पर भी खरी उतरती है। उनका यह ‘हाइकु-मुक्तक’ शैल्पिक दृष्‍टि से ‘ग़ैर मुरद्‍दफ़’ कोटि में परिगणित है। इस संदर्भ में महत्त्वपूर्ण बिन्दु यह कि हाइकु-मुक्तक में कवि पर ‘हाइकु’ के साथ ही मुक्तक/क़त्‍आत्‌ के छंद-निर्वाह का दोहरा दायित्व होता है। यही कारण है कि ‘हाइकु-मुक्तक’ अपेक्षाकृत एक कठिन विधा है, जिसे हर हाइकुकार सहजतापूर्वक नहीं साध पाता है। जितने भी हाइकुकारों के ऐसे सृजन-प्रयास मेरे दृष्‍टि-पथ से गुज़रे हैं, उनमें से अधिकतर ‘हाइकु-मुक्तक’ के नाम पर विकलांग-प्रस्तुतियाँ ही दे सके हैं। निम्नांकित रचना में श्री काम्बोज जी ने हाइकु के साथ ही 26 मात्रिक छंद-विधान को बड़ी कुशलता से निभाया है-

      इस जग में/ कितनों ने समझी/ आँसू की बोली
      सबके आगे/ कितनों ने दुःख की/गठरी खोली
      क्या जाने कोई/दुख की गहराई/ दुखदायक
      चुपके से आ/ किसने जीवन में/मिसरी घोली!

इस लघु आलेख में स्थानाभाव के चलते ‘हाइकु-रुबाई’ का उदाहरण-सम्मत उल्लेख संभव नहीं हो पा रहा है, तथापि अब तक सिर्फ़ चार हाइकु-रुबाईकारों के नाम मेरे संज्ञान में हैं; यथा-  स्वामी श्यामानन्द सरस्वती ‘रौशन’,  श्री धनसिंह खोबा ‘सुधाकर’,  डॉ. मिर्ज़ा हसन ‘नासिर’ एवं श्री इब्राहीम ‘अश्क’।

उपर्युक्त से इतर सामान्य प्रचलित मुक्तक/क़त्‍आत में भी, ग़ज़लों की तरह ‘ग़ैर मुरद्‌दफ़’ चतुष्पदियों के बहुतेरे उदाहरण देखने को मिल जाते हैं। सुप्रसिद्ध कवि डॉ. मधुसूदन साहा (उड़ीसा) के संग्रह ‘मुक्‍तक मणि’ (चयन एवं संपादन : जितेन्द्र ‘जौहर’) में शामिल एक उदाहरण यहाँ प्रस्तुत है-

वक़्त कहता होंठ अपने आज खोलो
चल पड़ा है क़ाफ़िला तुम साथ होलो
बाहुबलियों से अगर यूँ ही डरोगे,
‘कल’ करेगा क्यों तुम्हें फिर माफ़ बोलो?

सुपरिचित कवि श्री दीपक ‘दानिश’ का यह क़ता/मुक्तक देखें, जिसमें चारों मिसरे/पंक्तियाँ परस्पर सुसम्बद्ध हैं। यहाँ पहली पंक्ति में जिस विषय को प्रवर्तित किया गया है, दूसरी पंक्ति ने उसमें एक नया आयाम जोड़ दिया है। आगे के क्रम में तीसरी पंक्ति एक आवश्यक बुनियाद खड़ी करने में सफल हुई है, जिस पर चौथी प्रभावपूर्ण पंक्ति काफी सरलता से टिक गयी है- 

उनसे शाख़ों पे इक तबस्सुम था
तिनके-तिनके में इक तरन्नुम था
शह्‌र से अब जो उड़ गये पंछी
शह्‌र उनके लिए जहन्नुम था।

उपर्युक्त चौपदी में यह भी ध्यातव्य है कि प्रथम पंक्ति ने विषय-प्रवर्तन के बावजूद कथ्य को पूर्णतः उद्‍घाटित नहीं किया है, बल्कि उसने एक पाठकीय जिज्ञासा जगा दी है। पंक्ति पुनः देखें- ‘उनसे शाख़ों पे इक तबस्सुम था।’ यहाँ प्रश्‍न उठता है कि ‘किनसे...तबस्सुम था?’ इसका उत्तर अभी अनुपलब्ध है। उत्तर की यह अनुपलब्धता की स्थिति द्वितीय पंक्ति में भी यथावत है, अर्थात्‌...यहाँ भी ‘पाठकीय जिज्ञासा’ अग्रसारित हो गयी है। जिज्ञासा के वशीभूत पाठक आगे बढ़ता है, तृतीय पंक्ति तक पहुँचकर उसे वांछित उत्तर प्राप्‍त हो जाता है- ‘पंछी’। अब रही बात चतुर्थ पंक्ति की, तो कहना होगा कि वह एक विशेष तेवर के साथ उतरी है...रूपकाभा लेकर। स्पष्‍टतः यह चौपदी हमारी पर्यावरणीय दशा को दर्शाने में एक बड़ी सीमा तक सफल हुई है, जिसमें ‘जहन्नुम’ शब्द अपनी केन्द्रीय भूमिका निभा रहा है। इन सब ख़ूबियों के बीच, शिल्प एवं प्रकार की दृष्‍टि से इस चौपदी को और भी विशेष बनाया जा सकता था,  एक लघु परिवर्तन के माध्यम से।

वरिष्‍ठ कवि डॉ. रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’ का एक मनभावन मुक्तक देखें, जिसमें मुक्तककार ने बिना कोई मात्रा गिराये अपने भावों-विचारों को अभिव्यक्त करने में सफलता पायी है। निःसंदेह यह मुक्तक हिन्दी के ‘विधाता’ छंद के समुचित निर्वाह का एक उत्कृष्‍ट उदाहरण है, जिसमें ‘यति-गति’ के निर्धारित विधान का भी पूरा ध्यान रखा गया है। इसे मैंने अपने स्तम्भ ‘तीसरी आँख’ (त्रैमा. ‘अभिनव प्रयास’) की एक क़िस्त में छंद के स-लक्षण उल्लेख के साथ सम्मिलित करते हुए लिखा था कि श्रृंगार-रस में आप्लावित डॉ. ‘यायावर’ के निम्नांकित मुक्तक में जहाँ मधुर चुम्बन की वाचालता है, तो वहीं उसके माधुर्य को अभिव्यक्त कर पाने की भाषागत असमर्थता भी...‘ज्यों गूँगे को गुड़’! यह मुक्तक पढ़ते ही मेरी स्मृति में कविवर त्रिलोचन आ गये...यह कहते हुए कि-  ‘भाषा के भी परे प्राण लहरें लेता है!’  यहाँ पंक्ति-चतुष्‍टय की भावगत सुसंबद्धता द्रष्‍टव्य है। साथ ही, यह भी कि तीसरी पंक्ति को कितनी कलात्मकता के साथ चौथी पंक्ति का सोपान बनाया गया है! बहरहाल मुक्तक का आनन्द लीजिए-

हृदय की पीर को कब कह, सकी संसार की भाषा
बहुत वाचाल चुम्बन के, मधुर उपहार की भाषा
हज़ारों गीत-ग़ज़लों में, नहीं है व्यक्त हो पाती
तुम्हारे रूप की भाषा, हमारे प्यार की भाषा।

वरिष्‍ठ कविवर श्री चन्द्रसेन विराट के व्यापक मुक्तक-संसार की बात ही निराली है। उनके अधिकांश मुक्तक शिल्प के सुन्दर सीप से ढलकर निकले प्रौढ़-परिपक्व भावों-विचारों के मनहर मोती हैं। अब तक के मेरे निजी संज्ञानानुसार हिन्दी साहित्य में सर्वाधिक मौलिक मुक्तक-संग्रह (कुल पाँच संग्रह) प्रकाशित होने का गौरव उनके नाम के साथ जुड़ा है। आज जहाँ एक ओर तमाम कविगण स्वयं को ‘मुक्तक-महर्षि’ अथवा ‘मुक्तक-सम्राट’ आदि न जाने कितनी ही संज्ञाएँ देने में लेश-मात्र भी संकोच नहीं करते, वहीं दूसरी ओर कविवर विराट अपने सुविस्तृत ‘मुक्तक-संसार’ में मौन साधनारत रहकर ‘मुरुक़-प्रदेश’ के मुक्तक परिक्षेत्र को समृद्ध कर रहे हैं। उनकी एक चौपदी देखें, जो अपने सूक्तिपरक रूप में पाठकों के लिए उरग्राही हो गयी है-

विष को पीने की कला आती है
घाव सीने की कला आती है
दुख के अनुभव से गुज़रकर जग में
सुख से जीने की कला आती है।

किसी भी लघु आलेख में विषय को समग्रता में प्रस्तुत कर पाना प्रायः संभव नहीं हो पाता है। अतः इसमें मुक्तक के प्रकारादि से जुड़े अनेक महत्त्वपूर्ण बिन्दु छूट गये हैं, जिन पर चर्चा फिर कभी होगी।

- जितेन्द्र ‘जौहर’
आई आर-13/3, रेणुसागर, सोनभद्र (उप्र) 231218.
मोबा.  : +91  9450320472  
ईमेल:  jjauharpoet@gmail.com