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साथी-संगम

Saturday, May 12, 2012


एक क्षणिका :


गणित ० 


रिश्तों की ‘आधार रेखा’ पर
आशाओं का ‘लम्ब’
जितना ऊँचा उठता जायेगा,
निराशाओं के ‘कर्ण’ की लम्बाई
बढ़ती जायेगी!
                                                     -जितेन्द्र ‘जौहर’

20 comments:

  1. वाह सर बहुत ही सुंदर गणित .....आनंद आ गया ...वाह !

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  2. अच्छी क्षणिका है. अविराम के दिसंबर २०११ अंक में भी थी यह क्षणिका. नियमित रूप से आपके ब्लॉग पर क्षणिकाएं पढ़कर अच्छा लगेगा. क्षणिका लेखन में आपकी अधिकाधिक सक्रियता हमेशा अपेक्षित रहेगी.

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  3. इस अनुपम गणित का प्रभाव
    लेखक की रचनाक्षमता को रेखांकित कर रहा है ...

    बधाई .

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  4. बहुत अच्छी लगी क्षणिकाएं। इस साध्य का निष्कर्ष हमने यही निकाला कि रेखाएं सरल रहें, तभी संबंध दूर तक जाते हैं।

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  5. हालाँकि गणित मेरा प्रिय विषय नहीं रहा ...
    रिश्तों के गणित में भी फेल ही होती रही ...
    पर यहाँ गणित के साथ-साथ जीवन का फलसफा भी है ..
    अति सुंदर ....!!

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  6. जीवन का आकर्षक गणित है। इसे समाशास्त्र के प्रोफेसर अली सा की नज़र करता हूँ।
    वैसे अधिक घबड़ाने की आवश्यकता नहीं है। पाइथागोरस बाबा के पास जायेंगे तो वह कहेंगे... रिश्तों और आशाओं का वर्ग निराशाओं के वर्ग के बराबर होता है। लम्ब ने समकोण त्रिभुज तो बना ही दिया है। :)

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  7. दानिश भाई की बात सही है |कल ब्लॉग तो खुला परन्तु ' नहीं दिखी थी गणित'सुन्दर और सिद्ध प्रमेय है बहुत बधाई!

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  8. आशाओं और निराशाओं के रिश्त्तों का यह काव्यात्मक गणित सराहनीय है। यह सिलसिला जारी रखिए।

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  9. जौहर भाई साहेब, अगर रिश्तों के आधार पर भी आशा न करें तो और किससे आस करें? ज़रा भगवान और भक्त के रिश्ते की आधारभूत मजबूती तो देखिए, भक्त सब कुछ मांग सकता है उससे. अब रही बात पाइथागोरस की, तो उसका फार्मूला केवल गणित के लिए ही सटीक हो सकता है, मेरे विचार में इसे अन्यत्र प्रयोग में लाना उचित नहीं होगा. यदि कवि ह्रदय से आप इसे उपयोग में लाते ही हैं तो आप पाएं गे कि का रिश्तों का 'आधार' सदा आशाओं के 'लम्ब' से कहीं अधिक लंबा और पुख्ता होता है. यथा बाप अपने बेटे से व बेटा अपने बाप से कुछ भी मांग लेता है. अर्थात इंसान अपने रिश्तों के आधार पर ही आशा का लम्ब खडा करता है. यदि पुत्र 'कुपुत्र' हो तो वह उस पर किसी भी आशा का लम्ब नहीं खडा करता. रही बात कर्ण की, सो वह तो आशाओं के पूर्ण होने का द्योतक है तथा ऐसा दानवीर है जिसने कभी किसी को खाली हाथ नहीं लौटाया था. अतः कर्ण की लम्बाई का अर्थ (प्रतिफल)आधार और लम्ब के परिमाण पर निर्भर है.अगर रिश्ते गहरे व मजबूत हों तो आशाएं कितनी भी कर सकते हैं. मनुष्य का स्वयं से रिश्ता (आधार) तो खूब मजबूत होता है परन्तु उसके जीवन में फिर भी निराशाएं आ ही जाती हैं. अपने दैनिक जीवन में भी हम देखते हैं कि अगर किसी इमारत की नींव गहरी हो (यानि आधार विस्तृत एवं मजबूत) तो आप इस पर 'आशाओं' का कई मंजिला महल बनवा सकते है. अगर आधार कमजोर हो तो उस पर बना एक मंजिला भवन भी ज्यादा समय तक टिक नहीं पाता है.

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    1. बेहद पसंद आयी आपकी प्रतिक्रिया.

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    2. सुंदर प्रतिक्रिया। यहाँ पाइथागोरस बाबा पूरी तरह फेल हो गये।:)

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  10. केवल गणित के फार्मूलों से खेलना ही कवि का शौक नहीं होता.
    उसे तो हर विषय में कविता खोज लेना बाखूबी आता है.

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  11. प्रियवर जितेन्द्र 'जौहर' जी
    सस्नेहाभिवादन !

    रिश्तों की आधार रेखा
    आशाओं का लम्ब
    निराशाओं का कर्ण

    …वाह वाह !
    जीवन की गणित के भेद उजागर करती अभिनव बिंबों से लक-दक इस लघु कविता की क्या बात है ! जितेन्द्र का जौहर पूरी तरह मुखरित है रचना में…
    छोटी-सी कविता में पूरा जीवन दर्शन दे दिया आपने …
    प्रशंसनीय !

    मंगलकामनाओं सहित…
    -राजेन्द्र स्वर्णकार

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  12. AAPKA GANIT PASAND AAYAA HAI . BADHAAEE .

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  13. This formula is exactly applicable for self-respect in one's life.

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  14. This comment has been removed by the author.

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  15. वाह .क्या बात है ... हमारे जीवन के सबसे उबाऊ विषय ..पर ..
    वास्तव में मनुष्य के जीवन में ,दुःख और निराशाओं का कारण , उसकी दूसरों से की गई अपेक्षाएं ही हैं ..!!
    रिश्तों का आधार ...उनसे आशाएँ करना स्वाभाविक ही है ..और जब यह पूर्ण न हों तो ,निराशाओं के कर्ण का बढ़ना सुनिश्चित है ..तब तक ..जब तक की अंतस का भाव सम न हो जाए ..!! प्रमेय के हिसाब से तो रिश्तों का आधार पुख्ता करने की ही आवश्यकता है ...!!..लम्ब और कर्ण स्वतः आनंददायक हो जायेंगे !!

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