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साथी-संगम

Friday, May 13, 2011

रुबाई-३ :

काटे हैं शबो-रोज़ वो काले कैसे?
सीने में छिपा दर्द निकाले कैसे?
मत पूछिए विधवा ने भरी दुनिया में,
पाले हैं भला बच्चे तो पाले कैसे?
                                                               -जितेन्द्र ‘जौहर’
____________________
शब्दार्थ : शबो-रोज़ = रात और दिन (दिन-रात)

17 comments:

  1. सत्य कहा.....

    मन भींग गया,दुःख अनुमानित कर...

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  2. वाह इस रुबाई के लिये और आह उस परिस्थिति के लिये..

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  3. वाह कहूँ या आह ... ?

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    1. डॉ. अनवर जलाल साहब,

      :) मैं दोनों मान रहा हूँ...‘वाह’ भी और ‘आह’ भी... क्योंकि बक़ौल उपर्युक्त ‘भारतीय नागरिक’ साहब- "वाह इस रुबाई के लिए और आह उस परिस्थिति के लिए..."

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  4. सच्‍ची और हकीकत से रूबरू कराती रूबाईयां।

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  5. लाजवाब निशब्द। शुभकामनायें।

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  6. सिर्फ चार पंक्तियों यानी कुछ ही शब्दों में हकीकत को जामा पहना दिया - गागर में सागर - लाजवाब प्रस्तुति

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  7. आप सभी गुणीजनों का हार्दिक आभार...!

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  8. जितेन्‍द्र जी,

    आरज़ू चाँद सी निखर जाए,
    जिंदगी रौशनी से भर जाए,
    बारिशें हों वहाँ पे खुशियों की,
    जिस तरफ आपकी नज़र जाए।
    जन्‍मदिन की हार्दिक शुभकामनाएँ!
    ------
    ब्‍लॉगसमीक्षा की 23वीं कड़ी।
    अल्‍पना वर्मा सुना रही हैं समाचार..।

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  9. इस दर्द को हर कोई कैसे समझेगा भला ....??
    शुभकामनायें आपको !

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  10. जोहर साब
    प्रणाम !
    यथार्थ का समक्ष रखती है आप की ये उम्दा रुबाई ! बेहद सुंदर !
    बधाई !
    सादर !

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  11. "काटे हैं शबो-रोज़ तो काले कैसे?" .. ????
    मुझे लगता है अंत में कुछ यूँ होना चाहिये था :
    "..... तो काटे कैसे?"
    मुझे आपकी हर रचना मंजी हुई लगती है.
    कम शब्दों में गहन अभिव्यक्ति होती है.

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    Replies
    1. प्रतुल जी,
      कृपया पहला मिसरा एक बार पुनः पढ़ लीजिए...

      अनुरोध!

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  12. भाई प्रतुल जी,
    आपसे पढ़ने में थोड़ी-सी चूक हो गयी है; रुबाई की पहली पंक्ति यूँ है-

    ‘काटे हैं शबो-रोज़ वो काले कैसे?’
    (यहाँ आपने ‘वो काले’ की जगह... ‘तो काले’ पढ़ लिया है।)

    आपने ब्लॉग पर पधारकर हमारा मान बढ़ाया, हार्दिक आभार...!
    -जितेन्द्र ‘जौहर’

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  13. .

    आपकी इस रुबाई सहित पिछली दोनों रुबाइयां पढ़ कर आनंद आ गया …
    पता नहीं, इस पोस्ट पर टिप्पणी भूल गया था , अथवा पब्लिश नहीं हो पाई , या मिट गई …

    आपने रुबाई की बुनगट को बख़ूबी निभाया है …

    हार्दिक बधाई !
    -राजेन्द्र स्वर्णकार

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    Replies
    1. धन्यवाद...राजेन्द्र जी,
      आपके उत्साहवर्द्धन के लिए...!

      कई बार ऐसा हो जाता है...टिप्पणी मिस्टर इण्डिया वाली घड़ी पहनकर ग़ायब हो जाती है! टिप्पणियाँ ग़ायब हो सकती हैं...हमारी मूल भावनाएँ नहीं!

      आपका अपनत्व सदैव बना रहा है...मेरे लिए धरोहर है...आपकी सन्निधि मेरे लिए एक निधि है!

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