काटे हैं शबो-रोज़ वो काले कैसे?
सीने में छिपा दर्द निकाले कैसे?
मत पूछिए विधवा ने भरी दुनिया में,
पाले हैं भला बच्चे तो पाले कैसे?
-जितेन्द्र ‘जौहर’
____________________शब्दार्थ : शबो-रोज़ = रात और दिन (दिन-रात)
सत्य कहा.....
ReplyDeleteमन भींग गया,दुःख अनुमानित कर...
वाह इस रुबाई के लिये और आह उस परिस्थिति के लिये..
ReplyDeleteवाह कहूँ या आह ... ?
ReplyDeleteडॉ. अनवर जलाल साहब,
Delete:) मैं दोनों मान रहा हूँ...‘वाह’ भी और ‘आह’ भी... क्योंकि बक़ौल उपर्युक्त ‘भारतीय नागरिक’ साहब- "वाह इस रुबाई के लिए और आह उस परिस्थिति के लिए..."
सच्ची और हकीकत से रूबरू कराती रूबाईयां।
ReplyDeleteलाजवाब निशब्द। शुभकामनायें।
ReplyDeleteसिर्फ चार पंक्तियों यानी कुछ ही शब्दों में हकीकत को जामा पहना दिया - गागर में सागर - लाजवाब प्रस्तुति
ReplyDeleteआप सभी गुणीजनों का हार्दिक आभार...!
ReplyDeleteachchhi lagi aapki rubai bahut vah
ReplyDeleteजितेन्द्र जी,
ReplyDeleteआरज़ू चाँद सी निखर जाए,
जिंदगी रौशनी से भर जाए,
बारिशें हों वहाँ पे खुशियों की,
जिस तरफ आपकी नज़र जाए।
जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएँ!
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ब्लॉगसमीक्षा की 23वीं कड़ी।
अल्पना वर्मा सुना रही हैं समाचार..।
इस दर्द को हर कोई कैसे समझेगा भला ....??
ReplyDeleteशुभकामनायें आपको !
जोहर साब
ReplyDeleteप्रणाम !
यथार्थ का समक्ष रखती है आप की ये उम्दा रुबाई ! बेहद सुंदर !
बधाई !
सादर !
"काटे हैं शबो-रोज़ तो काले कैसे?" .. ????
ReplyDeleteमुझे लगता है अंत में कुछ यूँ होना चाहिये था :
"..... तो काटे कैसे?"
मुझे आपकी हर रचना मंजी हुई लगती है.
कम शब्दों में गहन अभिव्यक्ति होती है.
प्रतुल जी,
Deleteकृपया पहला मिसरा एक बार पुनः पढ़ लीजिए...
अनुरोध!
भाई प्रतुल जी,
ReplyDeleteआपसे पढ़ने में थोड़ी-सी चूक हो गयी है; रुबाई की पहली पंक्ति यूँ है-
‘काटे हैं शबो-रोज़ वो काले कैसे?’
(यहाँ आपने ‘वो काले’ की जगह... ‘तो काले’ पढ़ लिया है।)
आपने ब्लॉग पर पधारकर हमारा मान बढ़ाया, हार्दिक आभार...!
-जितेन्द्र ‘जौहर’
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ReplyDeleteआपकी इस रुबाई सहित पिछली दोनों रुबाइयां पढ़ कर आनंद आ गया …
पता नहीं, इस पोस्ट पर टिप्पणी भूल गया था , अथवा पब्लिश नहीं हो पाई , या मिट गई …
आपने रुबाई की बुनगट को बख़ूबी निभाया है …
हार्दिक बधाई !
-राजेन्द्र स्वर्णकार
धन्यवाद...राजेन्द्र जी,
Deleteआपके उत्साहवर्द्धन के लिए...!
कई बार ऐसा हो जाता है...टिप्पणी मिस्टर इण्डिया वाली घड़ी पहनकर ग़ायब हो जाती है! टिप्पणियाँ ग़ायब हो सकती हैं...हमारी मूल भावनाएँ नहीं!
आपका अपनत्व सदैव बना रहा है...मेरे लिए धरोहर है...आपकी सन्निधि मेरे लिए एक निधि है!