यहाँ ‘संज्ञाएँ’ शब्द का प्रयोग सांकेतिक है; यह संकेत उन स्व-घोषित ‘महाकवियों’ को केन्द्र में रखकर रचा गया है जो स्वयं को साहित्य की किसी अंतरिक्षीय कक्षा (Orbit) में स्थापित करने / करवाने के लिए स्व-प्रायोजित ‘महा अभिनंदन-ग्रंथ’ तक प्रकाशित करवा डालते हैं, वह भी अपने ख़र्चे पर... हाऽऽ हाऽऽ हाऽऽ...!
___________________________________
आवारा विशेषणो !
जाओ...
कि स्वार्थ-साधना पर बैठी
उच्छृंखल ‘संज्ञाएँ’
बुला रही हैं तुम्हें!
जाओ...
कि वे तुम्हारे मुक्त साहचर्य की
आकांक्षिणी हैं।
जाओ...
कि यश-कामना की शब्दारती
उतारनी है तुम्हें!
जाओ...
कि आत्म-मुग्ध सर्जना
निजाभिषेक को आतुर है।
जाओ...
कि ‘अहम्’ अपनी तुष्टि की चाह में
मृग-सा विकल है।
जाओ...
कि क्रिया-पदों की पंगत में
विशेषादर मिलेगा तुम्हें!
जाओ...
कि उभयपक्षीय लाभ का सौदा
क्रियान्वयन को लालायित है।
जाओ...
कि साठोत्तरी अक्षर-यज्ञ की
समिधा बनना है तुम्हें!
जाओ...
कि एक ‘अधूरी’ पांडुलिपि को
तुम्हारी ‘अधीर’ प्रतीक्षा है।
ऐ आवारा विशेषणो... !
जाओ...
जाओ... कि स्वार्थ-साधना पर बैठी
उच्छृंखल ‘संज्ञाएँ’
बुला रही हैं तुम्हें!
-जितेन्द्र ‘जौहर’
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(1). उपर्युक्त कविता पर गुण-दोष विवेचनपूर्ण टिप्पणियों का हार्दिक स्वागत है!
कि स्वार्थ-साधना पर बैठी
उच्छृंखल ‘संज्ञाएँ’
बुला रही हैं तुम्हें!
जाओ...
कि वे तुम्हारे मुक्त साहचर्य की
आकांक्षिणी हैं।
जाओ...
कि यश-कामना की शब्दारती
उतारनी है तुम्हें!
जाओ...
कि आत्म-मुग्ध सर्जना
निजाभिषेक को आतुर है।
जाओ...
कि ‘अहम्’ अपनी तुष्टि की चाह में
मृग-सा विकल है।
जाओ...
कि क्रिया-पदों की पंगत में
विशेषादर मिलेगा तुम्हें!
जाओ...
कि उभयपक्षीय लाभ का सौदा
क्रियान्वयन को लालायित है।
जाओ...
कि साठोत्तरी अक्षर-यज्ञ की
समिधा बनना है तुम्हें!
जाओ...
कि एक ‘अधूरी’ पांडुलिपि को
तुम्हारी ‘अधीर’ प्रतीक्षा है।
ऐ आवारा विशेषणो... !
जाओ...
जाओ... कि स्वार्थ-साधना पर बैठी
उच्छृंखल ‘संज्ञाएँ’
बुला रही हैं तुम्हें!
-जितेन्द्र ‘जौहर’
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(1). उपर्युक्त कविता पर गुण-दोष विवेचनपूर्ण टिप्पणियों का हार्दिक स्वागत है!
(2). काव्य सृजनधर्मियों के लिए एक आवश्यक सूचना--
हमारी पत्रिकाओं ‘अभिनव प्रयास’ (अलीगढ़) एवं ‘प्रेरणा’ (शाहजहाँपुर) के लिए काव्य की प्रत्येक विधा की उत्कृष्ट एवं प्रकाशन-योग्य रचनाएँ सादर आमंत्रित हैं।
क्या कहूँ मैं ???????
ReplyDeleteसचमुच कुछ भी नहीं सूझ रहा...
वैसे आपका लेखन सिद्ध हुआ...जब कृति व्यक्ति को मुग्ध और मौन कर दे,तो उसका प्रयोजन सफल हो जाता है..
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ReplyDeleteBeautiful creation !
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सच्चाई को बड़े ही सुन्दर तरीके से कविता बद्ध किया है आपने। बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteवाह संज्ञा और विशेषण का सहचर्य बहुत अच्छा लगा ..क्रिया पदों में विशेष आदर ...सच कहा..सब अपनी प्रशंसा सुनने को आतुर रहते हैं ...बहुत अच्छी कृति
ReplyDelete'चाह नहीं सुरबाला के गहनों में गूँथा जाऊँ' के नजरिये से देखें तो आज हर कोई लालायित है विशेषणों के लिये ऐसे में विशेषण जायें तो कहॉं और कैसे।
ReplyDeleteजौहर साहिब आपने हमें उलझन में डाल दिया है. संज्ञा और विशेषण की मोहब्बत तो शमा और परवाने की तरह लगती है. मेरे विचार से यह उभयपक्षीय लाभ का सौदा कैसे हो सकता है? विशेषण का अस्तित्व तो संज्ञा के संपर्क में आते ही मानो खो सा जाता है. विशेषण रूपी परवाने शमा में जलने को बेताब हैं क्योंकि ये अपनी फितरत से मजबूर हैं. जौहर करना इनकी नियति बन गया है. लेकिन जौहर साहिब आप तो सचमुच आप हैं (यहाँ संज्ञा एवं विशेषण दोनों को छोड़कर सर्वनाम का प्रयोग करना उपयुक्त रहेगा). “आप हैं आप, आप सब कुछ हैं. और हैं और ...और कुछ भी नहीं.” आपने जिस खूबसूरती से इन लफ्जों की तखलीक को अमली जामा पहनाया है वह वाकई काबिले तारीफ़ है. अश्विनी रॉय
ReplyDeleteबहुत खूब है शब्दों का चयन...
ReplyDeleteek ek shabad sachha aur itna adhbhut ki tareef ke liye shabad nahi hai. vyakaran ke sangya visheshan ko lekar itni aachi kavita .. waah sahab
ReplyDeleteलीजिए... भाई राय जी, अब संभवतः आपकी उलझन दूर हो जाएगी!
ReplyDeleteअव्वल तो आपको हार्दिक धन्यवाद...कि आपने खुलकर अपनी बात रखी। मुझे लगता है कि आप इस कविता के संदर्भ से नहीं जुड़ सके। भाई, संदर्भ बदल जाने से अर्थ का अनर्थ हो जाता है।
दरअस्ल आप से चूक यह हो गयी कि आपने ‘संज्ञा’ को सिर्फ़ संज्ञा और इसी तरह ‘विशेषण’ को सिर्फ़ विशेषण के रूप में ग्रहण किया है। ग़ौरतलब है कि यह कविता ‘संज्ञा-विशेषण’ जैसे विषय पर नहीं लिखी गयी है।
यहाँ ‘संज्ञाएँ’ शब्द का प्रयोग सांकेतिक है; यह संकेत उन स्व-घोषित महाकवियों को केन्द्र में रखकर रचा गया है जो स्वयं को साहित्य की किसी अंतरिक्षीय कक्षा (Orbit) में स्थापित करने / करवाने के लिए स्व-प्रायोजित ‘महा अभिनंदन-ग्रंथ’ तक प्रकाशित करवा डालते हैं, वह भी अपने ख़र्चे पर... हाऽऽ हाऽऽ हाऽऽ!
बात सिर्फ़ इतनी ही नहीं है, ये ‘महाकविगण’ स्वयं अपने मित्रों-परिचितों से फोन व पत्र द्वारा अनुरोध करके अपने लिए स्तुति-गान लिखवाने की करबद्ध विनती करते देखे जा सकते हैं! स्वयं मेरे पास भी ऐसे अनगिनत अनुरोध-पत्र अभी भी रखे हैं। भाई, ज़रा सोचिए कि यह कितनी बड़ी विसंगति है!
...विशेषणों को ‘आवारा’ इसलिए कहा गया है क्योंकि हमारा यह दौर विशेषणों की अपव्ययिता का दौर है। साहित्य में एक-दूसरे को ‘कालिदास-भवभूति’ कहकर हम आत्म-मुग्धता के आनन्द-लोक में उन्मुक्त विचरण करते दिख रहे हैं। ये विशेषण आज इतने ‘आवारा’ हो गये हैं कि तमाम ब्लॉगों पर विकलांग और अल्लम-गल्लम कविताओं की भी शब्दारती उतारते दिख जाएँगे।
और अब रहा... ‘उभयपक्षीय लाभ का सौदा’ वाला बिन्दु। यह तो एकदम सीधी-सी बात है, जी। मैं आपका ‘महिमा-गान’ गाऊँ और आप मेरा...दोनों का लाभ, दोनों के अहम् की तुष्टि, दोनों का प्रचार... दोनों बन गये तथाकथित महाकवि, थोड़ी ही देर के लिए सही।
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteजितेंद्र जी! जब हर ओर पतन का दौर जारी है तो साहित्य भी इससे अछूता नहीं रह सकता है... सुभाष चंद्र बोस को हम आज भी नेता जी के नाम से जानते हैं, किंतु आज किसी सभ्य आदमी को आप नेता जी कह कर संबोधित कर दें तो शायद आप उससे मित्रता समाप्त कर बैठेंगे. नैतिक तथा सांस्कृतिक पतन के इस दौर में वे अलंकरण तथा विशेषण जो किसी व्यक्ति का भूषण हुआ करते थे, आज अधोन्मुखी हो चुके हैं. आपने जिन शब्द युग्म का सहारा लेकर अपनी बात रखी है, वे समस्त शब्द अपना प्रभाव छोड़ते हुए दिख रहे हैं. एक बहुत ही सुंदर रचना!!!
ReplyDeleteखूब लिख रहे है आप. चिंता न करिये फर्जी संज्ञाओं और विशेषणों से नवाज़े जाने वालों की, बस कर्म,समय और भगवान पर भरोसा रखें.
ReplyDeleteकुँवर कुसुमेश
ब्लॉग:kunwarkusumesh.blogspot.com
संदर्भ को ध्यान में न रखा जाय तो भी एक दो पैरा को छोड़कर जो कवियों की प्रशंसा में लिखे गए हैं, कविता व्यापक अर्थ भी खोलती है। मठाधीश नेताओं एवं प्रशासनिक अधिकारियों की चाटुकारिता के संदर्भ में भी इस कविता को देखा जा सकता है, लेकिन संदर्भ लिखे जाने से दृष्टि-भाव सभी केंद्रित हो जा रहे हैं।
ReplyDeleteभूल नही गयी थी देर से इस लिये आयी कि घर मे बच्चे आये थे समय नही मिला नेट पर आने का। और आज की रचना देख कर निश्बद हूँ\ क्योंकि मै इतनी बडी कवियती नही हूँ कि इस कविता की समीक्षा राय जी की तरह कर सकूँ मगर मुझे लगता है कि उनका कमेन्ट भी साम्केतिक बिम्बों के रूप मे ही है। फिर कल्पनाओं का क्या आप एक कल्पना को अपने अपने भाव से भी देख सकते है। इस तरह एक कविता कई बार इतना व्यापक अर्थ खोज लेती है कि पाठक को दस बार सोचना पडता है कि यहाँ कवि क्या कहना चाहता है मगर आपकी कविता सही स्न्देश स्दे रही है जो आप कहना चाहते हैं सपष्ट है। सुन्दर सटीक अभिव्यक्ति। बधाई।
ReplyDeleteसमादरणीय विद्वज्जन,
ReplyDeleteसादर अभिवादन!
आपका स्नेह-अपनत्व मुझे ‘टिप्पणी’ स्तम्भ पर आने को प्रेरित कर गया। सो प्रस्तुत हूँ यह कहने के लिए कि-
अत्यन्त प्रसन्नता होती है जब किसी कृति-विशेष पर सुस्पष्ट, सुविचारित, तर्कपूर्ण एवं बेवाक प्रतिक्रियाएँ सामने आती हैं...‘रचना-परख’ पर आधारित ‘रचना-परक’ प्रतिक्रियाएँ। यहाँ आप सभी गुणीजन काफी खुलकर अपनी राय रख रहे हैं। इसके लिए ‘आभार’ शब्द मुझे छोटा जान पड़ता है।
...........................
>श्री देवेन्द्र पाण्डेय जी,
आपकी बात एकदम सही है। विदित हो कि कल दिन में यहाँ ‘संदर्भ’ नहीं था। मुझे शाम को किसी विशेष कारण से संदर्भ दर्ज करना पड़ा, पोस्ट को एडिट करके।
हमको मालूम है जन्नत की हकीक़त 'ग़ालिब'
ReplyDeleteपर दिल के बहलाने के लिए ये ख़याल अच्छा है..
जिसे जैसा भी अच्छा लगे... उसे वैसे ही खुश रहने दीजिये...
किन्ही को शौक अपनी बड़ाई सुनने का है... किसी को अपनी कमी जानने का
साहित्य का एक उद्देश्य मनोरंजन भी है ... किसी और का ना सही तो खुद का तो मनोरंजन
हो ही जाता है इस महिमामंडन से...
यदि कोई अपना राज्याभिषेक करवाना चाहता है महाकवि के रूप में तो करवाये क्या फर्क पडता है अंततोगत्वा तो वही साहित्य जीवित रहेगा जो खरा सोना होगा । पर आपकी रचना और उसमें प्रयोग में लाये गये बिंब बहुत अच्छे लगे । आप मेरे ब्लॉग पर आये और बेबाक टिप्पणी दी आभार ।
ReplyDeleteसंज्ञा जब संज्ञा होते हुए विशिष्ट हो जाती है विशेषण की ओर बढ़ने लगती है । कुछ विशेषण बनके ही पैदा होते हैं, कुछ बन जाते है और कुछ जबरदस्ती अपने साथ जोड़ने की चेष्टा करते रहते हैं । बधाई अनुप्रयोग के लिए
ReplyDeleteयही आज की सच्चाई है !
ReplyDelete-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
सम्मानित स्वजन,
ReplyDeleteहार्दिक अभिवादन!
आप सभी का अपनत्व मेरे सिर-माथे..! आभारी हूँ, और रहूँगा भी।
श्री मनीष जी,
बहुत अच्छा लगा आपके सुस्पष्ट विचार जानकर!
.........................
श्रीमती आशा जोगलेकर जी,
बिल्कुल सही कहा आपने...! सच है कि समय की छ्न्नी सबकुछ छान लेती है।
..........................
श्री जयप्रकाश मानस जी (सृजनगाथा),
आपक वर्गीकरण बहुत विशेष रूप से रेखांकित किये जाने योग्य है...उक्त तीनों प्रजातियाँ धरती पर उपलब्ध हैं।
..........................
श्री ज्ञानचंद मर्मज्ञ जी,
धन्यवाद कि आपने अपने अमूल्य पल ‘जौहरवाणी’ को दिये...और अभिमत भी, संक्षिप्त ही सही!
सुंदर रचना बधाई हो .......दीपमाला पर्व की आपको ढेरो ढेर शुभकामनाये !
ReplyDeleteभाई अमर जीत जी,
ReplyDeleteसत् श्री अकाल!
धन्यवाद...आपको भी दीप-पर्व की अनंत आत्मीय मंगलकामनाएँ!
Jauhar ji ,
ReplyDeleteHow you doing ?
Thanks...Zeal ji,
ReplyDeleteThings R going smoothly...though I'm a little bit busy these days.
Wish you a very luminous Diwali. Hope it brings U joy & eternal happiness and, of course, all that U wish for yourself...So be it!
Thanks and same to you too.
ReplyDeletequite impressive presentation...appealing too.
ReplyDeleteHappy Diwali.
Wow...New dimension of thought
ReplyDeleteek sachchi rachna likhne ka hausala aap men hai ,main kawita par nahin aapke hausale par mantrmugdh huun
ReplyDeleteसच कहा जीतेंद्र !
ReplyDeleteविशेषण आवारा हो गए हैं
क्योंकि
हमने क़द्र नहीं की उनकी
अपदस्थ कर दिया है उन्हें
बड़ी बेशर्मी से.
घूम रहे हैं वे सब
पद्मश्री
और
राष्ट्रपति पुरस्कार बनकर.
असली हकदार ने
दम तोड़ दिया है
सरकारी अस्पताल के बिस्तर पर
गुमनाम कम्बल ओढ़कर.
मुझे चिढ है
इन प्रशस्ति पत्रों और
उपाधियों से
जो बाज़ार में बिक रही हैं खुले आम
और जिन्हें
लेना नहीं चाहेगा
कोई खुद्दार.
और अब आलम ये है
कि जिसे करना हो बेईज्ज़त सरेआम
देदो उसे कुछ उपाधियाँ, कुछ मेडल
पढ़ दो प्रशस्ति और ......
कर दो कुछ पुरस्कार उसके नाम
कौशलेन्द्र भाई,
ReplyDeleteवाह...क्या बात है! ग़ज़ब का लुत्फ़ है, आपकी इस काव्यात्मक प्रतिक्रिया में...!
साधुवाद!