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साथी-संगम

Saturday, October 23, 2010

‘ईर्ष्या’ और उसकी की दो बहनें : Jealousy and Its Two Sisters


डॉ. दिव्या श्रीवास्तव जी अपने ब्लॉग पर  इस बार ‘ईर्ष्या’ विषय को लेकर सामने आयीं हैं। यहाँ मैं उनकी विचार-धारा में एक नया आयाम जोड़ने का अदना-सा प्रयास कर रहा हूँ। शायद आपको पसंद आये। आपकी सार्थक  टिप्पणियों की राह निहारूँगा। आपसे उम्मीद तो यह करता हूँ कि आप भी इस प्रकरण पर यहाँ कुछ जोड़कर विषय को विस्तार देंगे! तो लीजिए, हुज़ूर...प्रस्तुत हूँ अपने विचारों के साथ:
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‘ईर्ष्या’ शब्द पर विस्तृत प्रकाश डालना पिष्टपेषण करने जैसा होगा ? ऐसे में,  मैं  सिर्फ़ इतना ही कहना चाहूँगा कि-
"Jealousy is an awkward homage which inferiority renders to merit." 

 Inferiority और Merit  के वास्तविक अर्थ से तो हम सभी बख़ूबी वाक़िफ़ हैं। लेकिन यहाँ इनका प्रयोग सांकेतिक है... यहाँ ये शब्द व्यक्तियों के लिए प्रयोग किये गये हैं। इन दोनों शब्दों का जो इंगितार्थ है, उसके आधार पर एवं इनके लक्षणों को ध्यान में रखते हुए मैं इन्हें क्रमशः ‘तुच्छ’ और ‘उच्च’ कहना चाहूँगा।

कितना बेहतर होता, यदि Inferiority (तुच्छता) अपना समय, चिंतन और ऊर्जा किसी दूसरे की Merit (उच्चता)  का उपहास उड़ाने के बजाय अपनी ‘तुच्छता’ को ‘उच्चता’  में परिवर्तित करने में लगाती। आशय यही कि ‘तुच्छता’ निरर्थक निंदा करने में अपने समय-चिंतन-ऊर्जा का जो अपव्यय करती घूमती रहती है, वह सृजनात्मक न होकर, विनाशक है, बल्कि कहना चाहिए कि ‘आत्म-विनाशक’

यदि ‘तुच्छता’ अपने चिंतन की दिशा बदलते हुए,  दृष्टि का मूल कोण बदलते हुए अपने अंदर प्रतिस्पर्द्धी भाव को जगा ले और अपनी योग्यता एवं शक्ति के विस्तार की दिशा में सक्रिय हो जाए तो.... निश्चित रूप से एक-न-एक दिन ‘ईर्ष्या’ स्वयं भी ईर्ष्या की पात्र बन सकती है!

ईर्ष्या से बचने के जितने भी ज्ञात उपाय हैं, उनमें से मुझे सर्वोत्तम उपाय यही लगता है कि यदि हम दूसरों के सद्‌गुणों, विशेषताओं, योग्यताओं आदि की मुक्त हृदय से  प्रशंसा करना सीख लें, तो हम अपने मन में  ‘ईर्ष्या-भावना’ के उत्पन्न होने का मार्ग काफी हद तक अवरुद्ध कर सकते हैं।

अरे, ये क्या...ऽऽऽ? मैं तो ‘ईर्ष्या’ के बिन्दु पर ही अटककर रह गया। चलिए...कोई बात नहीं, अब आ जाते हैं उस नये आयाम पर जिसका मैंने लेखारम्भ में उल्लेख किया है।  

‘ईर्ष्या’ की दो बहनें और भी हैं; ये दोनों बहनें मनुष्य के लिए कम हानिकारक नहीं। इनका हानिकारक होना स्वाभाविक ही तो है, आख़िर बहनें किसकी हैं...‘ईर्ष्या’ की ही न? तो फिरऽऽऽ...! इनके स्वभाव में क्रियात्मक / व्यवहारात्मक नकरात्मकता (Behavioral Negativity) का आना स्वाभाविक ही है!

शास्त्रों में इनका (जिन्हें मैं प्रायः ‘जेलसी एण्ड सिस्टर्स’  कहता हूँ) सानिध्य त्याज्य बताया गया है। शास्त्रादेश को अनदेखा करके जो व्यक्ति इनकी संगत अपनाता है, उसके व्यक्तित्व में दोष तो उत्पन्न होता ही है...साथ ही वह अपना नुकसान भी करता है। कैसे...?

इसमें कोई दो राय नहीं कि ‘ईर्ष्यालु’ व्यक्ति अपने किसी लक्षित इंसान को कितना नुकसान पहुँचा पाता है, यह उन परिस्थितियों पर निर्भर करता है जिनमें वह अपने ‘लक्ष्य’ पर निंदादि माध्यम से क्रियाशील हुआ है या यूँ कहें कि प्रहार करने चला है! वह कितना सफल होगा, यह तो तत्कालीन परिस्थितियाँ ही बताएँगी। ...लेकिन इतना तो तय है कि वह सबसे पहला नुकसान स्वयं का ही करता है। इस बात को मैंने कभी अपनी  अंग्रेज़ी ग़ज़ल के एक शे’र में कहने की कोशिश की थी। प्रसंगतः वह शे’र यहाँ आपके अवलोकनार्थ प्रस्तुत है :

Grudge is a 'corpion which stings-
Its bearer, seldom others bite. 

ख़ैर...।

‘ईर्ष्या’ की दो बहनों में से एक का नाम है- ‘असूया’।‘ईर्ष्या’ की सौतेली बहन है यह; बड़ी दुष्टा है। ढंग से पहचान लीजिए इसे! ‘छिद्रान्वेषण’  इसकी आदत मे शामिल है! सरल एवं मुहावरेदार भाषा में कहें तो... ‘दूसरों के फटे में टाँग अड़ाती है यह’! बड़ी काग-दृष्टि होती है इसके पास!  दूसरों के श्रेष्ठ गुण में भी बड़ी कलात्मकता व चतुराई से दोष-दर्शन कर लेती है। संस्कृत आचार्यॊं ने इसे कुछ यूँ परिभाषित किया है-
"असूया परगुणेषु दोषनिष्करणं।" 

स्मरण रखने की सुविधा के हिसाब से संक्षेप में कह सकते हैं कि-
दूसरों के गुण न सह पाना ‘ईर्ष्या’ है, जबकि दूसरों के गुण को अवगुण- दुर्गुण बताना ‘असूया’ है। 

‘ईर्ष्या’ की दूसरी बहन है- ‘पिशुनता’। यह ‘असूया’ की सहोदरा कहलाती है। जी हाँ...सहोदरा, यानी समान ‘उदर’ अर्थात्‌ एक ही ‘पेट’ से उत्पन्न! यह भी कम शातिर नहीं..., बल्कि ‘असूया’ से एक क़दम आगे ही है। दूसरे का ‘अज्ञात दोष’ प्रकट करना इसकी मूल मनोवृत्ति है। इसकी प्रभाव-परिधि में आकर व्यक्ति अपने विरोधी के ऐसे-ऐसे अवगुण / दुर्गुण गिनाने लगता है जिनके बारे में पहले कभी सुना या जाना नहीं गया होता है। यह गुप्त रूप से गहरा प्रहार करने के लिए सदैव तत्पर रहती है। चुग़लखोरी और मिथ्या-निंदा के पथ की पथिक होती है यह। संस्कृत में इसका अर्थ कुछ यूँ बताया गया है-
"पैशुन्यं परदूषणम्‌।"  अर्थात्‌... ‘पर-दोष’ यानी पराये दोषों की चुग़ली करना ‘पिशुनता’ है।
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आपको यह वर्णन / विवेचन कैसा लगा?  कृपया इस पर अपनी बहुमूल्य राय देना न भूलें। बेहतर हो कि आप खुलकर अपने विचार जोड़कर इस लेख को और भी अधिक ज्ञानवर्द्धक एवं उपयोगी बनाएँ...  तथास्तु!

32 comments:

  1. अपकी विवेचना बहुत अच्छी लगी। धन्यवाद।

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  2. यह लेख ईर्ष्या सम्बन्धी जानकारी में इजाफ़ा करता है,अच्छा है.
    जितेन्द्र जी के लेख और डॉ.दिव्या जी के ईर्ष्या सम्बन्धी लेख में एक विशेष अंतर मुझे दिखता है.
    डॉ. दिव्या का लेख ईर्ष्यालु व्यक्ति अगर इत्मिनान से पढ़ ले तो वह इस मानसिक विकार से निजात पा सकता है,यानी वह केवल लेख ही नहीं दवा भी है.
    जबकि जितेन्द्र जी का लेख पाठक की ईर्ष्या सम्बन्धी जानकारी में वृद्धि करता है.
    वैसे डॉ. दिव्या जी और जितेन्द्र जी,दोनों विद्वानों की मेहनत को मैं सलाम करता हूँ.

    कुँवर कुसुमेश

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  3. .

    ********************************************
    संत्रास मोह मति चपलता, लज्जा मद उन्माद.
    अपस्मार आवेग धृति, गर्व वितर्क विषाद.
    दैन्य उग्रता स्वप्नश्रम, चिंता ग्लानि अमर्ष.
    शंका स्मृति आलस्य जड़, मरण असूया हर्ष.
    निद्रा व्याधि विरोध अरु उत्सुकता निर्वेद.
    अवहित्था तैंतीस ये संचारी के भेद.
    ********************************************

    इसमें ३३ संचारी भावों के नाम काव्य बद्ध हैं. 'असूया' संचारी अथवा व्यभिचारी भाव है जो स्थायी नहीं रहता केवल स्थायी भाव में सहयोग मात्र करता है.

    जबकि ईर्ष्या आदि चित्त की अस्थिरता को चपलता के अंतर्गत माना गया है.

    असूया — दूसरे के उत्कर्ष [ऐश्वर्य, सौभाग्य, विद्या, लीला आदि) को न सह सकना ही असूया है. यह गर्व, दुर्जनता तथा क्रोध से उत्पन्न होती है, इसके पर दोष-कथन, अनादर, भौंहों को चढ़ना, मन्यु तथा क्रोध की चेष्टाएँ आदि अनुभाव हैं.

    चपलता — मात्सर्य, राग, द्वेष (ईर्ष्या, अमर्ष) आदि से (उत्पन्न) होने वाली चित्त की अस्थिरता चपलता है. इसमें भर्त्सना करना, कठोरता, दिखलाना, स्वच्छंद आचरण करना (ताडन) आदि अनुभाव होते हैं.

    _______________________
    आपकी प्रस्तुति आपका मनोभावों पर वर्णन काफी रोचक है. मन रम गया उसमें. मुझे इन विषयों पर संग्रहित सामग्री की याद हो आयी. अपने विचार विधिवत रूप से कभी अपनी पाठशाला में दूँगा.

    .

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  4. .

    जीतेन्द्र जी ,

    बहुत अच्छी जानकारी दी आपने । बहुत कुछ नया सीखने को मिला आज । असूया और पिशुनता के सन्दर्भ में जो जानकारी आपने दी है, उसके लिए आपका आभार।

    ----------------------------

    कुसुमेश जी,
    आपका भी बहुत बहुत आभार।

    .

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  5. बहुत से चिंतन योग्य विषयों को आप यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं । अच्छा लगा , आगे संवाद होता रहेगा ।

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  6. निर्मला कपिला जी,
    आपने पहली दस्तक दी, आभारी हूँ!
    ........................

    कुँअर कुसुमेश जी,
    आपके ‘ललाम’ सलाम को मेरा भी सलाम! पुनश्च, मैंने लेखारम्भ में ही कह दिया है कि :"मैं उनकी विचार-धारा में एक नया आयाम जोड़ने का अदना-सा प्रयास कर रहा हूँ।" यक़ीनन मुझे तो ईर्ष्या की दो बहनों के नाम-भर बताने थे,लेकिन लिख कुछ ज़्यादा ही गया है।
    .........................

    प्रतुल वशिष्ठ जी,
    वाह...! क्या कहने! आपने विचारों में नया आयाम जोड़ दिया।
    आपके कराम्बुजों पर अधराधर छाप देने का मन कर रहा है, मुझे रोकेंगे तो नहीं आप?
    ..........................

    दिव्या श्रीवास्तव (उर्फ़ Zeal) जी,
    धन्यवाद... और मेरा अहोभाग्य कि आपको इस ख़ाकसार के ब्लॉग पर कुछ नया मिल सका।
    ..........................

    आद. निर्मला कपिला जी एवं डॉ. दिव्या जी,
    Follower बनने के लिए आभारी हूँ।

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  7. इतना अच्छा लिखा है कि मैं आश्चर्य में पड़ गया. जो ज्ञान पुस्तकों से भी नहीं प्राप्त हो सकता वह ब्लाग जगत में आसानी से मिल जाता है.

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  8. अब देखिये न मुझे भी आपका ब्लॉग पढ़ कर ईर्ष्या होने लगी है. काश मैं भी इतना सुन्दर लिख पाता. मगर क्या करूँ...आपके बराबर हमारे पास सामर्थ्य तो है नहीं. भला ऐसे में किसी को भी ईर्ष्या होने लगेगी. क्यों? है न? परन्तु आप जैसे गुनीजनों के लिए यह कोई चिंता का विषय नहीं हो सकता. एक कवि का तो यह भी कहना है कि निंदक नियरे राखिये आँगन कुटी छवाए...बिन साबुन पानी बिना निर्मल करे सुभाए. अगर ईर्ष्यालु व्यक्ति में ऐसी क्षमता है तो भला उसे कौन नहीं चाहेगा? अब ईर्ष्यालु पर गौर करें तो पता चलता है कि अगर उसके पास योग्यता होती तो भला वह ईर्ष्या करने की बजाय स्पर्धा में भाग लेता. परन्तु ऐसा भी नहीं है. उसके पास तो एक ही योग्यता है जिसका प्रदर्शन वह आसानी से कर रहा है. अगर नक़ल करने से अक्ल की बचत होती हो तो भला कौन चूकेगा? मगर ये तो सोचने वाले की सोच पर निर्भर करता है कि अपने प्रतिद्वंदी को कैसे नीचा दिखाए.आजकल लोग केवल ईर्ष्या के बारे में ही अधिक जानते हैं उसकी दोनों बहनों तक ईर्ष्यालु कहाँ जायेगा? क्योंकि उसे तो सभी से ईर्ष्या होती है फिर चाहे वो उसकी बहनें ही क्यों न हों.

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  9. शरद कोकास जी,
    धन्यवाद आपके इस प्रथमागमन के लिए, आते रहिएगा!
    .....................

    भारतीय नागरिक जी,
    आभार कि आपने भी यहाँ पहली दस्तक दी। लेखन आपको पसंद आया,यह जानकर अच्छा लगना स्वाभाविक है।
    ......................

    अश्वनी रॉय जी,
    आप शुरू से ही इतना प्यार देते आये हैं कि मैं आपके स्मरण-मात्र से ही आनन्दित होने लगता हूँ। आप सिर्फ़ ‘टिप्पणी देने के लिए’ टिप्पणी नहीं देते, बल्कि अपने निजी विचारों से कुछ-न-कुछ नया चिंतन-बीज बो कर जाते हैं।

    ऐसे मित्र/पाठक हर अच्छे ब्लॉग को मिलें...तथास्तु!

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  10. आपने अपनी बातों का काफी तर्क पूर्ण ढंग से रखा है। डॉ. दिव्या श्रीवास्तव के ब्लाग पर चल रही बहस के संदर्भ में एक पोस्ट आज ही मैंने आपने ब्लॉग पर भी डाली है।
    नफरत से पैदा करते हैं और पाक कहते हैं
    http://sudhirraghav.blogspot.com/

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  11. बहुत सुंदर विश्लेषण ...... जानकारी परक

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  12. जितेंद्र जी,

    बहूत ही सुंदर विश्लेषण, चर्चा को अवकाश नहिं है।
    ज्ञानार्जन की एक खिडकी और मिल गई।

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  13. सुधीर जी,
    आप पहली बार यहाँ आये हैं, स्वागत करता हूँ...आते रहिएगा यूँ ही!
    .....................

    मोनिका जी,
    धन्यवाद, अब आपके इस सतत्‌ अपनत्व को क्या कहूँ...? प्रणाम!
    ......................

    सुज्ञ जी,
    ‘जौहर’ की इस अंजुमन में आपका स्वागत है! प्रतुल जी के ब्लॉग पर आपके Sense of humour ने इतना लुभा लिया है कि मैं मुग्ध हो गया हूँ आप पर...एकदम फ़िदा...भाई जी!

    आप तो ‘सुज्ञ’ हैं...और ‘विज्ञ’ भी। यह ‘अनभिज्ञ’ आपको भला क्या ज्ञान दे सकेगा? तथापि आपकी विनम्रता को प्रणाम करता हूँ!

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  14. जितेन्द्र जी,
    सुज्ञ ही रहने दो भाईजी, अन्यथा ज्ञानार्जन की खिडकियां बंद हो जायेगी।

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  15. उस्ताद जी एवं सुज्ञ जी,
    Follow करने के लिए ‘धन्यवाद’ दूँ तो आपके अपनत्व का अवमूल्यन ही होगा... अस्तु ‘मौनेव शोभनम्‌!’ आशा है कि आप इस मौन को बख़ूबी बाँच लेंगे...तथास्तु!

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  16. बहुत कुछ नया है, बस ऐसे ही मिलता रहता है।

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  17. सुन्दर व्याख्या एवं और भी सुन्दर सुन्दर ग्यानपूर्ण टिप्पणियां.

    --जौहर जी ---अन्ग्रेज़ी की गज़ल कुछ जमी नहीं या शायद समझ में नहीं आई. scorpion तो दूसरों को भी काटता है , क्यों छोडेगा.मुझे भव-कथ्य की त्रुटि लगती है.

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  18. आज तो मैं ब्लॉग जगत में खुद को उस विद्य़ार्थि के रूप में पा रहा हूँ..जिसे एकसाथ कई विद्वानों का अनायास ही सानिध्य मिल जाय और वह अकबका जाय कि इतना ज्ञान किस गठरी में रखूं...शुक्र है कम्प्यूटर है..सब सहेज लेगा ।
    ..सुंदर व ज्ञानवर्धक पोस्ट के लिए आभार।

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  19. कितना बेहतर होता , यदि inferiority (तुच्छता ) अपना समय ,चिंतन और उर्जा किसी दुसरे की merit (उच्चता) का उपहास उड़ाने की बजाय अपनी ;तुच्छता' को 'उच्चता' में परिवर्तित करने में लगाती . आशय यही कि 'तुच्छता' निरर्थक निंदा करने में अपने समय -चिंतन- उर्जा का जो उपव्यय करती घूमती रहती है , वह सृजनात्मक न होकर . विनाशक है , बल्कि कहना चाहिए कि 'आत्म-विनाशक ' .....


    जितेन्द्र जी,

    बहुत अच्छे से आपने ईर्ष्या की विवेचना क़ी .... ईर्ष्या की दोनों बहनों असूया और पिशुनता को भी पहचाना ...प्रसून जी ने इसे और विस्तृत रूप दिया ....समझ सकती हूँ पिछले दिनों जो कुछ भी ब्लॉग जगत में हुआ उसके पीछे इन दोनों बहनों का ही हाथ रहा होगा .....आपका आभार ....इन सुर्पणखा जैसी बहनों से मिलवाने के लिए ...पहचान लिया है अगली बार ध्यान रखा जायगा ये हावी न होने पाएं .....!

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  20. और हाँ टेम्पलेट कोशिश करुँगी जल्द ही बदलने की तब तक मिचमिचा कर पढ़ते रहे .....!!

    और प्रसून जी की जगह प्रतुल पढ़ा jaye .....!!

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  21. आद. डॉ. श्याम गुप्त जी,
    नमस्कारम्‌!
    ‘जौहर’ की इस ‘छोटी-सी’ अंजुमन में आपका ‘बड़ा-सा’ स्वागत है! हार्दिक धन्यवाद कि आपने अपनी बात खुलकर रखी। आप जैसे विद्वान ने यदि उँगली उठायी है, तो ज़रूर कहीं कुछ गड़बड़ी होगी- या तो ‘कहने’ में... या फिर ‘समझने’ में।

    मैंने अपनी अँग्रेज़ी ग़ज़ल के जिस एक शे’र को यहाँ उद्धृत किया है, उसमें मैंने Grudge अर्थात्‌ ‘ईर्ष्या’ को Scorpion यानी ‘बिच्छू’ का रूपक देकर सिर्फ़ यह कहने की चेष्टा/कोशिश की थी कि-

    ‘ईर्ष्या’ एक ऐसा ‘बिच्छू’ है जो bearer अर्थात्‌ धारक (यानी, जो इसे पालकर रखता है) को सबसे पहले ‘डंक’ मारती है। यहाँ Sting यानी ‘डंक मारना’ को सिर्फ़ अभिधार्थ तक सीमित नहीं किया जाना चाहिए।

    फिर आगे कहा है कि- Seldom यानी ‘कभी-कभी/ यदा-कदा’ दूसरों (अर्थात्‌, ईर्ष्यालु के लक्षित-जनों)को भी Bite यानी काटती है।

    मेरी विनम्र राय में, उक्त संदर्भित शे’र से ऐसा भाव तो कहीं नहीं उभर रहा है कि Scorpion दूसरों को नही काटता है। ...आपकी बात एकदम सही है कि ‘क्यों छोड़ेगा’ वह किसी को!

    समग्रतः ‘ईर्ष्यालु’ व्यक्ति अपने तमाम उपायों से निरंतर प्रयासरत रहकर किसी लक्षित व्यक्ति पर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से प्रहार करता रहता है, ईर्ष्या रूपी पोषित ‘बिच्छू’ को उस पर छोड़ता रहता है। उसके इन निंदनीय प्रयासों से उस लक्षित व्यक्ति को कोई नुकसान होगा ही, यह ज़रूरी नहीं है।

    हाँ...मगर यह तो तय है कि वह पाला गया बिच्छू ‘ईर्ष्यालु’ द्वारा जब-जब बाहर निकाला जाएगा, उस दौरान सबसे पहला ‘डंक’ उसी ईर्ष्यालु को ही झेलना होगा क्योंकि... ‘डंक’ मारना बिच्छू का स्वभाव है।

    ..और एक सबसे ज़रूरी बात तो यह कि ‘ईर्ष्या’ का वह
    सूक्ष्म ‘बिच्छू’ अन्दर-अन्दर निरंतर काटता/डंक मारता रहता है...किसे? ...धारक को, बिच्छू के पालनकर्ता को!

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  22. ईर्षा और उसकी बहिनों की जानकारी बहुत अच्छी लगी |बधाई
    आपने मेरे ब्लॉग पर आकर प्रोत्साहित किया साधुवाद |
    मैं भी पहली बार आपके ब्लॉग पर आई हूं |
    एक बार फिर अच्छी जानकारी देती पोस्ट के लिए बहुत बहुत बधाई |
    आशा

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  23. देवेन्द्र पाण्डेय जी,
    कहीं पढ़ा था कि जो जितना अधिक विद्वान होता है, वह उतना ही अधिक विनम्र होता है! इसका व्यावहारिक रूप आपके कथन से साफ़ झलक रहा है।
    ...........................

    हरकीरत जी,
    आपके अपनत्व के लिए क्या कहूँ...? और हाँ...वो जो टेम्पलेट के लिए आपका निर्देश है तो मानना ही पड़ेगा, चलिए मैं एक Eye-drop ले आता हूँ। ...हाऽऽ हाऽऽ हाऽऽ
    ...........................

    आशा जी,
    धन्यवाद! स्वागत है आपका, आती रहिएगा यूँ ही!

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  24. अच्छी विवेचना ,विस्तार पूर्वक जानकारी के लिये धन्यवाद ।

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  25. मै श्री नारदमुनि जी का निम्नोद्धृत आशीर्वाद पाकर धन्य हुआ-
    ........................................

    नारदमुनि said...
    bahut khub. aashirvad.narayan narayan

    25/10/10 10:05 AM

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  26. आपकी इस सुन्दर विवेचना ने चमत्कृत और मुग्ध कर लिया...विषय की जितनी रोचक और शूक्ष्म विवेचना आपने की है कि इसमें और कुछ भी नहीं बच गया है जोड़ने लायक...
    सच है कि सकारात्मकता आत्मिक उत्थान करती है ,परन्तु यदि इर्ष्य जैसे नकारात्मक भाव को भी व्यक्ति सकारात्मक ढंग से नियोजित करे तो यह व्यक्ति का आत्मिक विकास करते हुए जीवन सुखदायी बना सकती है...

    आभार आपका इस सुन्दर आलेख के लिए..

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  27. जीतेन्द्र जी,
    इर्ष्या पर इतनी गहन विवेचना हो सकती है,आपका लेख पढ़ कर जाना ! इतनी अर्थपूर्ण जानकारी के लिए धन्यवाद !
    -ज्ञानचंद मर्मज्ञ
    www.marmagya.blogspot.com

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  28. bahut hee gahan chintan har shabd kee gahari vyakhya ...kuch baaten to mere liye sarvatha nayi raheen... aapki post ne nayi baaten sikhayin...aapki tippani ne nayi urja di ...dhanyawaad aapka

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  29. face book par samay dena vyarth k vivadon k sath man me anavashyak tanav utpann karna lagta tha.jitendr ji sach to ye hai ki f.b.par aapse judkar net ki upyogita siddh huee hai.ab lagta hai ki samay ka sadupyog ho raha hai.achchhe lekh k liye badhai

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