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साथी-संगम

Saturday, October 30, 2010

साहित्य में ‘परस्पर यश-गान’ पर...

     हमारा यह दौर... विशेषणों की अपव्ययिता का दौर है। साहित्य में तो कितने ही कविगण ‘उभयपक्षीय लाभ’ के मौन समझौते के तहत एक-दूसरे को ‘कालिदास-भवभूति’ कहकर आत्म-मुग्धता के आनन्द-लोक में उन्मुक्त विचरण करते दिख रहे हैं। आज ये विशेषण  इतने ‘आवारा’ हो गये हैं कि तमाम ब्लॉगों पर ‘विकलांग’ और ‘अल्लम-गल्लम’ कविताओं की भी शब्दारती उतारते दिख जाते हैं।


     हाँ ‘संज्ञाएँ’ शब्द का प्रयोग सांकेतिक है; यह संकेत उन स्व-घोषित ‘महाकवियों’ को केन्द्र में रखकर रचा गया है जो स्वयं को साहित्य की किसी अंतरिक्षीय कक्षा (Orbit) में स्थापित करने / करवाने के लिए स्व-प्रायोजित ‘महा अभिनंदन-ग्रंथ’ तक प्रकाशित करवा डालते हैं, वह भी अपने ख़र्चे पर... हाऽऽ  हाऽऽ  हाऽऽ...! 
___________________________________


आवारा विशेषणो !
जाओ...
कि स्वार्थ-साधना पर बैठी
उच्छृंखल ‘संज्ञाएँ’ 
बुला रही हैं तुम्हें!


जाओ...
कि वे तुम्हारे मुक्त साहचर्य की
आकांक्षिणी हैं।


जाओ...
कि यश-कामना की शब्दारती
उतारनी है तुम्हें!


जाओ...
कि आत्म-मुग्ध सर्जना
निजाभिषेक को आतुर है।


जाओ...
कि ‘अहम्’ अपनी तुष्टि की चाह में
मृग-सा विकल है।


जाओ...
कि क्रिया-पदों की पंगत में
विशेषादर मिलेगा तुम्हें!


जाओ...
कि उभयपक्षीय लाभ का सौदा
क्रियान्वयन को लालायित है।


जाओ...
कि साठोत्तरी अक्षर-यज्ञ की
समिधा बनना है तुम्हें!


जाओ...
कि एक ‘अधूरी’ पांडुलिपि को
तुम्हारी ‘अधीर’ प्रतीक्षा है।


ऐ आवारा विशेषणो... !
जाओ...


जाओ... कि स्वार्थ-साधना पर बैठी
उच्छृंखल ‘संज्ञाएँ’
बुला रही हैं तुम्हें!
                              -जितेन्द्र ‘जौहर’
___________________________________________ 
(1). उपर्युक्त कविता पर गुण-दोष विवेचनपूर्ण  टिप्पणियों का हार्दिक स्वागत है! 
(2). काव्य सृजनधर्मियों के लिए एक आवश्यक सूचना--
हमारी पत्रिकाओं ‘अभिनव प्रयास’ (अलीगढ़)  एवं ‘प्रेरणा’ (शाहजहाँपुर) के लिए काव्य की प्रत्येक विधा की उत्कृष्ट एवं प्रकाशन-योग्य रचनाएँ सादर आमंत्रित हैं। 

Saturday, October 23, 2010

‘ईर्ष्या’ और उसकी की दो बहनें : Jealousy and Its Two Sisters


डॉ. दिव्या श्रीवास्तव जी अपने ब्लॉग पर  इस बार ‘ईर्ष्या’ विषय को लेकर सामने आयीं हैं। यहाँ मैं उनकी विचार-धारा में एक नया आयाम जोड़ने का अदना-सा प्रयास कर रहा हूँ। शायद आपको पसंद आये। आपकी सार्थक  टिप्पणियों की राह निहारूँगा। आपसे उम्मीद तो यह करता हूँ कि आप भी इस प्रकरण पर यहाँ कुछ जोड़कर विषय को विस्तार देंगे! तो लीजिए, हुज़ूर...प्रस्तुत हूँ अपने विचारों के साथ:
___________________________________


‘ईर्ष्या’ शब्द पर विस्तृत प्रकाश डालना पिष्टपेषण करने जैसा होगा ? ऐसे में,  मैं  सिर्फ़ इतना ही कहना चाहूँगा कि-
"Jealousy is an awkward homage which inferiority renders to merit." 

 Inferiority और Merit  के वास्तविक अर्थ से तो हम सभी बख़ूबी वाक़िफ़ हैं। लेकिन यहाँ इनका प्रयोग सांकेतिक है... यहाँ ये शब्द व्यक्तियों के लिए प्रयोग किये गये हैं। इन दोनों शब्दों का जो इंगितार्थ है, उसके आधार पर एवं इनके लक्षणों को ध्यान में रखते हुए मैं इन्हें क्रमशः ‘तुच्छ’ और ‘उच्च’ कहना चाहूँगा।

कितना बेहतर होता, यदि Inferiority (तुच्छता) अपना समय, चिंतन और ऊर्जा किसी दूसरे की Merit (उच्चता)  का उपहास उड़ाने के बजाय अपनी ‘तुच्छता’ को ‘उच्चता’  में परिवर्तित करने में लगाती। आशय यही कि ‘तुच्छता’ निरर्थक निंदा करने में अपने समय-चिंतन-ऊर्जा का जो अपव्यय करती घूमती रहती है, वह सृजनात्मक न होकर, विनाशक है, बल्कि कहना चाहिए कि ‘आत्म-विनाशक’

यदि ‘तुच्छता’ अपने चिंतन की दिशा बदलते हुए,  दृष्टि का मूल कोण बदलते हुए अपने अंदर प्रतिस्पर्द्धी भाव को जगा ले और अपनी योग्यता एवं शक्ति के विस्तार की दिशा में सक्रिय हो जाए तो.... निश्चित रूप से एक-न-एक दिन ‘ईर्ष्या’ स्वयं भी ईर्ष्या की पात्र बन सकती है!

ईर्ष्या से बचने के जितने भी ज्ञात उपाय हैं, उनमें से मुझे सर्वोत्तम उपाय यही लगता है कि यदि हम दूसरों के सद्‌गुणों, विशेषताओं, योग्यताओं आदि की मुक्त हृदय से  प्रशंसा करना सीख लें, तो हम अपने मन में  ‘ईर्ष्या-भावना’ के उत्पन्न होने का मार्ग काफी हद तक अवरुद्ध कर सकते हैं।

अरे, ये क्या...ऽऽऽ? मैं तो ‘ईर्ष्या’ के बिन्दु पर ही अटककर रह गया। चलिए...कोई बात नहीं, अब आ जाते हैं उस नये आयाम पर जिसका मैंने लेखारम्भ में उल्लेख किया है।  

‘ईर्ष्या’ की दो बहनें और भी हैं; ये दोनों बहनें मनुष्य के लिए कम हानिकारक नहीं। इनका हानिकारक होना स्वाभाविक ही तो है, आख़िर बहनें किसकी हैं...‘ईर्ष्या’ की ही न? तो फिरऽऽऽ...! इनके स्वभाव में क्रियात्मक / व्यवहारात्मक नकरात्मकता (Behavioral Negativity) का आना स्वाभाविक ही है!

शास्त्रों में इनका (जिन्हें मैं प्रायः ‘जेलसी एण्ड सिस्टर्स’  कहता हूँ) सानिध्य त्याज्य बताया गया है। शास्त्रादेश को अनदेखा करके जो व्यक्ति इनकी संगत अपनाता है, उसके व्यक्तित्व में दोष तो उत्पन्न होता ही है...साथ ही वह अपना नुकसान भी करता है। कैसे...?

इसमें कोई दो राय नहीं कि ‘ईर्ष्यालु’ व्यक्ति अपने किसी लक्षित इंसान को कितना नुकसान पहुँचा पाता है, यह उन परिस्थितियों पर निर्भर करता है जिनमें वह अपने ‘लक्ष्य’ पर निंदादि माध्यम से क्रियाशील हुआ है या यूँ कहें कि प्रहार करने चला है! वह कितना सफल होगा, यह तो तत्कालीन परिस्थितियाँ ही बताएँगी। ...लेकिन इतना तो तय है कि वह सबसे पहला नुकसान स्वयं का ही करता है। इस बात को मैंने कभी अपनी  अंग्रेज़ी ग़ज़ल के एक शे’र में कहने की कोशिश की थी। प्रसंगतः वह शे’र यहाँ आपके अवलोकनार्थ प्रस्तुत है :

Grudge is a 'corpion which stings-
Its bearer, seldom others bite. 

ख़ैर...।

‘ईर्ष्या’ की दो बहनों में से एक का नाम है- ‘असूया’।‘ईर्ष्या’ की सौतेली बहन है यह; बड़ी दुष्टा है। ढंग से पहचान लीजिए इसे! ‘छिद्रान्वेषण’  इसकी आदत मे शामिल है! सरल एवं मुहावरेदार भाषा में कहें तो... ‘दूसरों के फटे में टाँग अड़ाती है यह’! बड़ी काग-दृष्टि होती है इसके पास!  दूसरों के श्रेष्ठ गुण में भी बड़ी कलात्मकता व चतुराई से दोष-दर्शन कर लेती है। संस्कृत आचार्यॊं ने इसे कुछ यूँ परिभाषित किया है-
"असूया परगुणेषु दोषनिष्करणं।" 

स्मरण रखने की सुविधा के हिसाब से संक्षेप में कह सकते हैं कि-
दूसरों के गुण न सह पाना ‘ईर्ष्या’ है, जबकि दूसरों के गुण को अवगुण- दुर्गुण बताना ‘असूया’ है। 

‘ईर्ष्या’ की दूसरी बहन है- ‘पिशुनता’। यह ‘असूया’ की सहोदरा कहलाती है। जी हाँ...सहोदरा, यानी समान ‘उदर’ अर्थात्‌ एक ही ‘पेट’ से उत्पन्न! यह भी कम शातिर नहीं..., बल्कि ‘असूया’ से एक क़दम आगे ही है। दूसरे का ‘अज्ञात दोष’ प्रकट करना इसकी मूल मनोवृत्ति है। इसकी प्रभाव-परिधि में आकर व्यक्ति अपने विरोधी के ऐसे-ऐसे अवगुण / दुर्गुण गिनाने लगता है जिनके बारे में पहले कभी सुना या जाना नहीं गया होता है। यह गुप्त रूप से गहरा प्रहार करने के लिए सदैव तत्पर रहती है। चुग़लखोरी और मिथ्या-निंदा के पथ की पथिक होती है यह। संस्कृत में इसका अर्थ कुछ यूँ बताया गया है-
"पैशुन्यं परदूषणम्‌।"  अर्थात्‌... ‘पर-दोष’ यानी पराये दोषों की चुग़ली करना ‘पिशुनता’ है।
____________________________________
आपको यह वर्णन / विवेचन कैसा लगा?  कृपया इस पर अपनी बहुमूल्य राय देना न भूलें। बेहतर हो कि आप खुलकर अपने विचार जोड़कर इस लेख को और भी अधिक ज्ञानवर्द्धक एवं उपयोगी बनाएँ...  तथास्तु!

Wednesday, October 20, 2010

आत्मा : हिदू बनाम मुस्लिम

ज मैं  ब्लॉग-जगत्‌ में चिंतन-मनन के बीज-कणों को तलाशता हुआ डॉ. दिव्या श्रीवास्तव  (थाइलैण्ड) के   ब्लॉग  http://zealzen.blogspot.com/2010/10/our-soul.html  पर जा पहुँचा। दिव्या जी ने अपनी एक ताज़ा पोस्ट में ‘आत्मा’ विषयक अनेक रोचक प्रश्न उठाये हैं। मेरे पहुँचने तक वहाँ 92 प्रतिक्रियाएँ समाने आ चुकी थीं... जिनमें एक-से-बढ़कर-एक विचार भरे पड़े थे। मेरी यात्रा सुखद रही। जो प्रश्न अक्सर मेरे मस्तिष्क में उभरकर चिंतन को कुरेदते रहे हैं, आज पुनः उठ खड़े हुए।  दिव्या जी ने ‘आत्मा’ जैसे ‘दिव्य’ विषय पर अनेक विचार-बिन्दु सामने रखे हैं जिनमें से  उनके निम्नांकित प्रश्न पर मैं अपनी विचार-माला जोड़ना चाहूँगा (यद्यपि मैं इस विषय का न तो कोई आधिकारिक विद्वान हूँ और न ही कोई विशिष्ट अध्येता) :

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"क्या आत्माओं का भी कोई धर्म होता है ? क्या एक हिन्दू आत्मा मुस्लिम परिवार में जन्म ले सकती है?" 
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        त्मा को ‘ऊर्जा’ मानते ही इस प्रश्न का समाधान स्वयमेव हो जाता है...आइए, हम एक बार  विचार करके देखते हैं-

 जिस प्रकार ऊर्जा अनेक वैद्युत उपकरणों में प्रविष्ट होकर उन्हें संचालित/ गतिमान/ प्रकाशमान कर देती है, उसी प्रकार ‘आत्मा’ हमारे देह-रूपी उपकरण को संचालित करती है।

अब, ऊर्जा ‘फिलिप्स’ के उपकरण में प्रविष्ट हो या ‘क्रॉम्प्टन’ के उपकरण में...या फिर किसी अन्य ब्राण्ड के किसी यंत्र में, इससे ऊर्जा का धर्म तो नहीं बदल जाता! ‘फिलिप्स’ ब्राण्ड  के उपकरण/ यंत्र में जाकर वह ‘फिलिप्सीय ऊर्जा’ नहीं कहलाएगी...और न ही ‘क्रॉम्प्टन’ के बल्ब में घुसकर ‘क्रॉम्प्टनीय ऊर्जा’। ऊर्जा तो सिर्फ़ ऊर्जा है।

ठीक उसी प्रकार आत्मा किसी ‘हिन्दू’ देह में प्रविष्ट हो या  किसी ‘मुस्लिम’ शरीर में...इससे आत्मा के साथ ‘हिन्दू-मुस्लिम’ नाम्नी विशेषण नहीं जोड़े जा सकते हैं। आत्मा तो सिर्फ़ आत्मा है!

अब थोड़ा व्यापक दृष्टि से देखिए-
‘हिन्दू’ और ‘मुस्लिम’ उस  परमसृष्टा की सृजन-सोच के हिस्से नहीं हैं; उसने तो सिर्फ़ ‘मनुष्य’ को गढ़ा है, ‘हिन्दू-मुस्लिम’ आदि को नहीं। ये जो ‘हिन्दू-मुस्लिम’ आदि हैं, सब  मनुष्य की निर्मितियाँ हैं। राष्ट्रकवि दिनकर जी ने ‘रश्मिरथी’ के द्वितीय सर्ग में  लिखा है कि :

'मैं कहता हूँ, अगर विधाता नर को मुठ्ठी में भरकर,
कहीं छींट दें ब्रह्मलोक से ही नीचे भूमण्डल पर,
तो भी विविध जातियों में ही मनुज यहाँ आ सकता है;
नीचे हैं क्यारियाँ बनीं, तो बीज कहाँ जा सकता है?


इस प्रकार हिन्दू-मुस्लिम रूपी क्यारियाँ पूर्णतः मानव-निर्मित हैं। मेरी राय में, जिस प्रकार किसी एक ‘क्यारी’ का  ‘पौधा’ किसी दूसरी ‘क्यारी’ में जाकर पुष्पित-पल्लवित हो सकता है, ठीक उसी प्रकार एक जन्म में हिन्दू परिवार में जन्मने वाले व्यक्ति की आत्मा किसी अगले जन्म में मुस्लिम-परिवार में देह-रूप धारण कर सकती है। ...Contd 


(शेष अगली किस्त में)    

Thursday, October 14, 2010

‘रज्जो की चिट्ठी’




















पुरस्कृत कविता : ‘रज्जो की चिट्ठी’    

      ज्जो...यानी समाज की अंतिम पंक्ति में खड़ी एक अनपढ़ और ग़रीब ग्रामीण महिला जिसका पति रोज़ी-रोटी की तलाश में गया था, दिल्ली। जी हाँ, दिल्ली... कंक्रीट के उस जंगल में पता नहीं वह कहाँ खो गया, न कोई चिट्ठी... न फोन... न घर-ख़्रर्च के लिए कोई मनी-ऑर्डर। 


     क तो परिवार पर पहले से ही ग़रीबी और कर्ज़ की मार, उस पर घर के बुज़ुर्गों की बीमारी का इलाज...और न जाने कितनी ही रोज़मर्रा की ज़रूरतें... इसी सोच में डूबी परेशान ‘रज्जो’ आख़िर करे भी तो क्या...? 


     हरहाल देश की आज़ादी के 63 वर्ष बीत जाने के बाद भी यदि ‘रज्जो’ के हालात जस-के-तस हैं, तो यह दृश्य अपने आप में हमारी विकास-यात्रा के तमाम दावों पर एक प्रश्नचिह्न लगाता है। तो लीजिए प्रस्तुत है- ‘रज्जो की चिट्ठी’...                                            
दिल के सब अरमान, हाय! फाँसी पर झूल गये।
पिया! शहर क्या गये, गाँव का रस्ता भूल गये!

अरसा बीत गया घर का न, हाल लिया कोई।
चिट्ठी लिखी न अब तक, टेलीफोन किया कोई।

भूले से भी कभी डाकिया, आया न द्वारे।
फोन के लिए मिसराइन से, पूछ-पूछ हारे!

होली पे गुझिया को अबकी, तरस गये बच्चे।
बिना तेल चूल्हे पे पापड़, भून लिये कच्चे!

फटा जाँघिया टाँक-टाँक, कलुआ को पहनाया।
कई दिनों से घर में सब्जी-साग नहीं आया!

कुल्फी वाला जब अपने, टोले में आता है।
सबको खाते देख छुटन्कू, लार गिराता है!

दलिया के लालच में कल, ‘इस्कूल’ गया छुटुआ।
उमर नहीं थी पूरी सो, ‘इडबीसन’ नहीं हुआ !

सही कहत बूढ़े-बुजुर्ग कि जहाँ जाए भूखा।
किस्मत का सब खेल राम जी! वहीं पड़त सूखा।

एक रोज बोलीं मुझसे जोगिन्दर की माईं।
‘ए रज्जो ! तोहरे पउवाँ में, बिछिया तक नाहीं!’

का बतलाऊँ..? मरे लाज के, बोल नहीं निकरा।
हमरे घर का हाल, गाँव अब जानत है सिगरा!

सुबह-शाम बापू की रह-रह, साँस उखड़ जाती।
फूटी कौड़ी नहीं दवाई जो मैं ले आती!

का लिखवाऊँ हाल, हाय रे... बूढ़ी मइया का ?
‘कम्पोडर’ का पर्चा, दो सौ तीस रुपैय्या का!


रोज-रोज की गीता आखिर, किस-किससे गाएँ?
कर्ज माँगने किस-किस के, दरवाजे पे जाएँ?

ठकुराइन पहले ही रोज, तगादा करती है।
कल बोली, ‘रज्जो.. तू झूठा वादा करती है!’

तू-तड़ाक-तौहीन झेलकर, बहुत बुरा लागा।
कर्ज-कथा ठकुराइन घर-घर, सुना रही जा-जा।

इससे ‘जादा’ और ‘बेजती’ क्या करवाओगे ?
अम्मा पूछ रहीं हैं, "लल्ला...घर कब आओगे?"

बापू को सूती की एक लँगोटी ले आना।
और सभी के लिए पेटभर रोटी ले आना!

मुन्नू चच्चा से कहकर ये, चिट्ठी लिखवाई।
जल्दी से पहुँचइयो दिल्ली,....हे दुर्गा माई !

                
                        -जितेन्द्र ‘जौहर’ 


श्री शैलेश भारतवासी(संस्थापक/संपादक:‘हिन्द-युग्म’) ने इस कविता को ‘हियु’ पर प्रस्तुत करते हुए लिखा कि
"...इस बार प्रतियोगिता में कुल 46 प्रविष्टियाँ सम्मिलित थीं। प्रथम चरण के 3 निर्णायकों द्वारा प्रदत्त     अंकों के आधार पर कुल 18 कविताएँ द्वितीय चरण के लिए चयनित हुईं। द्वितीय चरण मे 2 निर्णायकों ने उन्हें आँका। दोनों चरणों के कुल प्राप्तांकों के औसत के आधार पर सभी 18 कविताओं का क्रम निर्धारित   किया गया...जितेंद्र `जौहर’ की कविता (‘रज्जो की चिट्ठी’) सितंबर माह मे तीसरे स्थान पर रही है।      ‘हिंद-युग्म’ के लिए यह उनकी पहली कविता है..."                                                         


‘रज्जो की चिट्ठी’ नीचे दी गयी Link पर भी उपलब्ध (विविध टिप्पणियों के साथ): http://kavita.hindyugm.com/2010/10/blog-post_13.html


अब एक नज़र ‘रज्जो की चिट्ठी’ पर गुणीजनों द्वारा दर्ज की गयीं टिप्प्णियों पर : (संदर्भ:‘हियु’) 


BloggerSohan Chauhan said...



बहुत अच्छी है!

October 13, 2010 9:23 AM







Comment deleted
This post has been removed by the author.
October 13, 2010 9:23 AM




BloggerM VERMA said...




सुन्दर रचना ..
मनोदशा और भावों के चित्रण का खूबसूरती से निर्वाह हुआ है.



October 13, 2010 10:37 AM



BloggerRajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार said...


जय दुर्गा माई 
सर्वप्रथम



भाई जितेंद्र ’जौहर’ जी को बहुत बहुत बधाई !
… और साधुवाद ‘हिन्द युग्म’ को... एक श्रेष्ठ रचना को सम्मान देने के लिए !

जितेंद्र जी का गीत बहुत भावपूर्ण , सहज संप्रेषणीय और हमारे आस पास का लगता है ।
दलिया के लालच में कल
‘इस्कूल’ गया छुटुआ।
उमर नहीं थी पूरी सो,
‘इडबीसन’ नहीं हुआ !

इससे ‘जादा’ और
‘बेजती’ क्या करवाओगे ?
अम्मा पूछ रहीं हैं,
"लल्ला...घर कब आओगे?"

भाषा की प्रांजलता देखते ही बनती है ।

और भाव सीधे मन में घर करने वाले !
तथा शिल्प सर्वथा त्रुटि रहित !

जितेंद्रजी को अधिक पढ़ने का अवसर नहीं मिला , लेकिन जितना पढ़ा अत्यंत प्रभावित करने वाला लगा ।
पुनश्चः बधाई और मंगल कामनाएं !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
October 13, 2010 11:54 AM



Bloggerमनोज अबोध said...


JITENDRA JI,
BADHAI



BAHUT ACHHEE KAVITA HAI BHAI !!!!!!!!
October 13, 2010 4:25 PM


Bloggerसुरेन्द्र बहादुर सिंह " झंझट गोंडवी " said...



gaon ki garibi aur majboori ka isse sashakt chitran aur kya ho sakta hai
rachnakar ko rachna ke liye aur aapko prastuti ke liye bahut-bahut



dhanyvad
October 13, 2010 5:27 PM


Blogger
mahendra verma said...



समाज की पिछली पंक्ति में गिने जाने वाले लोगों के प्रति कवि की संवेदनशीलता इस कविता में मुखर हुई है।...आंचलिक शब्दों के प्रयोग ने कविता की प्रभावशीलता को बढ़ाया है।...बधाई, जौहर जी।

October 13, 2010 6:27 PM



BloggerRaqim said...




जितेन्द्र जौहर जी की ‘रज्जो की चिट्ठी’ महज एक कविता नहीं, बल्कि शब्दों द्वारा बनाई गई एक आँख है जिससे मैंने ‘रज्जो’ के मनोभावों को प्रत्यक्ष देख लिया... सुन्दर! 

October 13, 2010 7:14 PM



BloggerDeepali Sangwan said...




badhiya lagi kavita.. Dil tak pahuchi bina khatkhataye.. Badhai

October 13, 2010 8:16 PM



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तिलक राज कपूर said...


इस विशाल गणतंत्र में 60 वर्ष से अधिक की हमारी स्‍वतंत्रता और आज भी रज्‍जो जिन्‍दा है कविताओं में, यह सरोकार का विषय है। और अगर साहित्‍य को आज भी सरोकार है रज्‍जो से, तो संभावनायें हैं कि एक दिन रज्‍जो किसी दिन सुखद् अनुभूति का अंश होगी।

October 13, 2010 9:26 PM



Bloggerधर्मेन्द्र कुमार सिंह ‘सज्जन’ said...





देशज शब्दों को सुन्दर तरीके से सजाया गया है जो रचनाकार के परिपक्व शिल्प को दर्शाता है। कथ्य में ज्यादा कुछ नया नहीं है फिर भी रचना बाँधे रखती है।
रचनाकार को बधाई।



October 13, 2010 10:17 PM


Anonymous
Anonymous said...


sir, for how long you all so called hindi lovers poets will sell the most seelable itom poverty........... just think about it
October 13, 2010 11:10 PM



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चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...






जितेंद्र जी, आपके जौहर से तो परिचित हूँ, किंतु आज जो बानगी आपने प्रस्तुत की है, उसपर श्रद्धावनत हूँ... एक घटना याद आ गई... अपनी ग्रामीण पोस्टिंग के दौरान, एक दिवस सड़क किनारे चाय की दुकान पर बैठा चाय पी रहा था दोस्तों के साथ. सड़क पार एक जवान औरत, जो उस उम्र में वृद्धा दिखती थी, बर्तन मांज रही थी. मेरे मित्रों ने कहा कि यही काम करके वह अपना और परिवार का पालन पोषण करती है. पति नहीं है उसका, पूछने पर पता चला कि पति दिल्ली में सांसद है और वहाँ उसने एक और औरत रख ली है...
आज आपकी कविता ने उस स्त्री का चित्र मस्तिष्क में पुनर्जीवित कर दिया. आपकी रज्जो से मैं मिल चुका हूँ जौहर साहब और यकीन मानिए वो वैसी ही है जैसा आपने लिखा है. आभार आपका, एक ऐसी रचना से साक्षात्कार के लिए!



October 13, 2010 11:16 PM


Bloggermanu said...



bahut achchhaa likhaa hai janaab...

October 14, 2010 8:57 AM



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हरकीरत ' हीर' said...



जितेन्द्र जी,
पत्र- पत्रिकाओं में तो आपकी रचनाओं से परिचय होता रहा है ...आप और अंजुम जी दोनों ही व्यंग्य प्रधान हास्य कवितायेँ लिखने में सिद्धहस्त हैं .....‘हिंद युग्म’ पर आपको देखकर खुशी हुई .....सर्वप्रथम यह स्थान पाने की आपको हार्दिक बधाई .....
रज्जो की चिट्ठी में शब्द विन्यास और भाषा-शैली अद्वितीय बन पड़ी है ....जिसमें विदग्धता और मार्मिकता है .....!!
ढेरों बधाई ....!!sk 


October 14, 2010 2:20 PM


Blogger
Manoj Bhawuk said...


marmik,sundar,sarthak aur prasangik kavita.
sadhuvad.



Manoj Bhawuk
www.manojbhawuk.com
October 14, 2010 3:09 PM


Anonymous
rachana said...


bahut sunder likha hai jitni bhi tarif ki jaye kam hai .
ek ek shabd drishya utpan karta hai.
bahut bahut badhai



Rachana
October 14, 2010 7:33 PM


Blogger
जितेन्द्र ‘जौहर’ Jitendra Jauhar said...




सबसे पहले ‘हिन्द-युग्म’ के भाई शैलेश जी एवं उनके द्वारा नामित ‘विद्वान निर्णायक-मण्डल’ के प्रति हृदय के अंतर्तम गह्‌वरों से आभार कि उन्होंने ‘रज्जो की चिट्‌ठी’ को भी यथोचित प्यार-दुलार दिया।

मैं शीघ्र वापस लौटूँगा- ‘हियु’ के समस्त सम्मानित टिप्पणीकारों की उस सहृदयता एवं सद्‌भावना के प्रति अपनी सहज हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए ...जो उन्होंने ‘रज्जो की चिट्‌ठी’ के प्रति दर्शायी। यक़ीनन आज के व्यस्त दौर में यदि कोई किसी के लिए अपनी दिनचर्या में से समय निकालकर सदाशयता प्रकट करता है तो वह व्यक्तित्त्व ‘आभार’ का सच्चा सुपात्र है।



फिलवक़्त श्री/श्रीमती/सुश्री (पता नहीं, कौन-सा आदरसूचक शब्द चुनूँ...?) क्योंकि एक Anonymous (बे-नामी)जी ने अपने उद्‌गार में कोई संकेत ही नहीं छोड़ा कि वे 'He हैं या कि 'She'.


बहरहाल इस ‘लिंग’ चर्चा से दूर मैं उनके कथन पर आता हूँ। उनका कथन नीचे Copy & Paste कर रहा हूँ:

>>>>>>>>>>>>>>>
Anonymous said...
"sir, for how long you all so called hindi lovers poets will sell the most seelable itom poverty... just think about it"
>>>>>>>>>>>>>>>>

चूँकि बे-नामी जी द्वारा मुद्दा अँग्रेज़ी भाषा में उठाया गया है, अतः अँग्रेज़ी में ही उत्तर देना ज़रूरी समझता हूँ। सो प्रस्तुत हूँ-

Dear Sir/Madam (Whatever you are, plz choose one term of address for yourself suited to your gender.),


In a democratic country like ours, all of us have a freedom of speech. Keeping this in view, I salute you & your comment. There must be some special notion / opinion in your mind which motivated you to say what you said.


Pursuant to your above-posted comment, the very first thing I would love to say is that you didn't reveal the themes or subjects which a Hindi poet should write poems on.


Secondly, if you are able to give 3 critically acceptable reasons against this poem i.e.'Rajjo Ki Chitthi', I assure you that I shall take no time in throwing this poem in dustbin.


Thirdly, I don't claim to be a great poet. What I tried to express/depict in the concerned poem is available before your eyes in the form of 'Rajjo Ki Chitthi'.


Fourthly, 'Rajjo' will (and of course, she should) keep on appearing & re-appearing...not only in Hindi poetry, but also in other Languages whether regional or global. I'm very much convinced.


Here I would ask you one question with a keen eye in the way of your forthcoming reply, if you please.


What's the harm, if Rajjo's face keeps popping up again & again in literature...be it prose or poetry.


Have all the problems of Rajjo's miserable life been solved?


If yes, then...Where has the feeling of unrest among the down-trodden/poor people come from?


If not, then...my dear, why should she not be brought forward? Why should she not appear into the scene? Why should her miserable face with the eyes shedding tears in search of social justice not be depicted? Why should her sorry- plight not be translated into words?


Fifthly, You wrote "seelable itom". Ha...ha...ha!!! Dear, How ridiculous it is to note that you couldn't spell both the above words correctly. Hope you have a dictionary at home. The correct spellings are 'salable' (also: 'Saleable') & 'item' respectively.
October 14, 2010 8:17 PM



Comment deleted


This post has been removed by the author.

October 14, 2010 8:19 PM



Anonymous
deane.ranjana@gmail.com said...


जितेन्द्र जी, 
आपका लेखन और जोहर दोनों ही देखने लायक है. लेखन तो रज्जो की चिट्ठी में दिख गया और जौहर आपके करारे जवाब में जो आपने उस अनाम व्यक्ति को दिया. शुभकामनायें

October 14, 2010 10:16 PM



Anonymousranjana said...



जितेन्द्र जी, 
आपका लेखन और जोहर दोनों ही देखने लायक है. लेखन तो रज्जो की चिट्ठी में दिख गया और जौहर आपके करारे जवाब में जो आपने उस अनाम व्यक्ति को दिया. शुभकामनायें

October 14, 2010 10:19 PM



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चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...



जितेंद्र जी,
कुछ लोग छिपकर टिप्पणी इसलिए करते हैं ताकि उनकी पहचान उजागर न हो जाए.. और फिर उन्हें ख़ुद अपने कहे पर ऐतबार नहीं होता... वर्ना हिंदी कविता पर (ग़लत)अंगरेज़ी में प्रतिक्रिया देना कहाँ तक उचित है... इनको इग्नोर करें..वैसे भी राहत साहब का कहना है कि-
ख़तावार समझेगी दुनिया तुझे
अब इतनी भी ज़्यादा सफाई न दे!
October 15, 2010 8:21 AM


Bloggerडॉ. नूतन - नीति said...



Pradesh me pati kaa gaye hai jis gareebi ko vo jhel rahi hai aur shikayat kar rahi hai..Shashak chitran ..bahut khoob..

October 15, 2010 3:11 PM



Anonymous
Anonymous said...



Aapne Rajjo kee zindagee ka jo kavyaatmak chitra kheechaa hai,usko parhkar meree aankhon mein aansoo aa gaye...kitanaa sundar chitra ukera hai aapne.

October 15, 2010 9:20 PM



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Royashwani said...


“बापू को सूती की एक लँगोटी ले आना।
और सभी के लिए पेटभर रोटी ले आना!
मुन्नू चच्चा से कहकर ये चिट्ठी लिखवाई।

जल्दी से पहुँचइयो दिल्ली, ....हे दुर्गा माई !”


जौहर साहेब !
यकीन मानिए, आपकी कविता लाज़वाब है. भले ही आपको तीसरा पुरस्कार मिला हो...परन्तु मेरी नज़र में इससे बेहतर कविता हो ही नहीं सकती थी. आपने रज्जो का कलेजा निकाल कर रख दिया है इस खत के जरिये ! वाह कोई जवाब नहीं आपका! गरीबी और बदनसीबी का चित्रण इतना सजीव किया है कि देखते ही बनता है. इतनी फटेहाली में भी रज्जो को पूरे परिवार की फिक्र है...इसकी मिसाल सिर्फ हिन्दुस्तान में ही मिल सकती है. इस बेहद सुन्दर कविता के लिए आपको बधाई और बहुत बहुत साधुवाद...
अश्विनी कुमार रॉय 
October 15, 2010 11:27 PM









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जितेन्द्र ‘जौहर’ Jitendra Jauhar said...





श्री सोहन चौहान जी से लेकर श्री अश्वनी कुमार रॉय जी तक जितने भी काव्य-मर्मज्ञों/मित्रों/शुभचिंतकों ने अपनी मूल्यवान टिप्पणियों से ‘रज्जो की चिट्ठी’ को नवाजा, मैं उन सभी गुणीजनों के प्रति अपना हार्दिक आभार ज्ञापित करता हूँ...अपने इस मत्‌अले के साथ कि :



आपने प्यार हमको अपरिमित दिया।
शुक्रिया! शुक्रिया! शुक्रिया! शुक्रिया!


साथ ही, ‘बे-नामी’ रूप में आये दो में से उन ‘बे-नामी’जी (जिनकी टिप्पणी पर मैंने कुछ सवाल किए थे) को ‘श्रद्धांजलि’ अर्पित करता हूँ...! ‘श्रद्धांजलि’ इसलिए कि वे मेरे तमाम अनुरोध के बवजूद भी अपने ‘जीवित’ होने का प्रमाण नहीं दे सके/सकीं। प्रभु उनकी आत्मा को शांति दे!


और हाँ... साथ ही दुआ करता हूँ कि यदि किसी साइट/ब्लॉग आदि पर उनका पुनर्जन्म हो, तो विमल बुद्धि के साथ...! जो खण्डन अथवा मण्डन तो करे... लेकिन समालोचनात्मक दृष्टि से स्वीकार्य तर्कों के साथ!
October 16, 2010 2:52 PM